जब दिन भर की मेहनत से हो कुछ बूँद पसीने की ढल्की...
जब चूल्हों मे सर्दी सी हो, और आँखों में बारिश हल्की...
जब अन्न उगाने वाले ही मुट्ठी भर चावल खाते हो...
जब मेघ घने आकर भी झूठी उम्मीदें बरसाते हो...
जब रूप लक्ष्मी का दुनिया मे आने को हो तरस रहा....
जब नुची कोख का लहू आँख से पानी बन हो बरस रहा...
जब सच हो बना तवायफ़, झूठों की महफ़िल हो नाच रहा...
जब धर्म-बिल्लियों की रोटी हो बंदर कोई बाँट रहा...
जब कूड़े मे कचरे के संग-संग बेटी फेंकी जाती हो...
जब मजबूरी हो नंगी, उससे आँखें सेंकी जाती हो...
जब पढ़े लिखे बंदर जैसे हो, और लोमड़ी राज करे...
जब कोई माँ रोटी की खातिर बीच सड़क निज लाज धरे....
जब अंधे की लकड़ी के अंदर दीमक करे बसेरा तो...
जब आँधियारे मे छिप कर बैठा हो बेशर्म सवेरा तो...
जब जहाँ कवायद जीने भर की पाँच साल का मुद्दा हो...
जब नग्न सियासत सोती हो और भूख, ग़रीबी गद्दा हो...
तब बोलो कैसे कलम मेरी फिर खुशियों वाली बात कहे...
फिर बोलो कैसे दिन हर होली और दीवाली रात कहे...
मैं तो बस मिट्टी और हवा मे घुले अश्क़ को भरता हूँ...
मैं "खुली आँख की मौत" को केवल दर्द समर्पित करता हूँ...
7 टिप्पणियाँ:
मैं तो बस मिट्टी और हवा मे घुले अश्क़ को भरता हूँ...
मैं "खुली आँख की मौत" को केवल दर्द समर्पित करता हूँ...
गहन ...मर्मस्पर्शी रचना ...मन झकझोर गई ...!!
सच है, कैसे मने उत्सव..
Bahut khoob
दिलीप आपकी रचनाओ के भाव,शब्द और विषय तीनो ही झंझोर देते है ...नियमित लिखा कीजिये
दर्द ही दर्द.....
कुँवर जी,
भीतर तक हिला देती हैं आपकी रचनाएँ....
बहुत दिनों बाद आपको पढ़ना अच्छा लगा
शुक्रिया
आइस हालातों में सिवाय दर्द के और कुछ समर्पित किया भी नहीं जा सकता सटीक बात कहती मंर्मिक रचना।
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