उसने ता-उम्र तकल्लुफ का जो नक़ाब रखा...
वो जो उठता कभी ऊपर, तो इश्क़ हो जाता....
उसकी आदत है वो पीछे नहीं देखा करती...
ज़रा सा मुड़ के देखती, तो इश्क़ हो जाता...
उसको जलते हुए तारे, चमकता चाँद दिखा...
रात की तीरगी दिखती, तो इश्क़ हो जाता...
न उसने मेरे खतों का कभी जवाब दिया...
उसे लगता था वो लिखती, तो इश्क़ हो जाता...
समझ की करवटें ही नींद में अब शामिल हैं...
तुम्हारे ख्वाब जो आते, तो इश्क़ हो जाता...
शेर में मेरे 'चाँद' लफ्ज़ से जलती थी बहुत...
शेर जो पढ़ती वो पूरा, तो इश्क़ हो जाता...
जो लोग गीता, क़ुरानो में जंग ढूँढते हैं...
कभी
ग़ालिब को भी पढ़ते, तो इश्क़ हो जाता...
8 टिप्पणियाँ:
वाह ... बहुत खूब ...
बहुत ही खुबसूरत है ग़ज़ल सभी शेर एक से बढ़कर एक हैं.....दाद कबूल करें।
बहुत खूब..
यह इश्क-इश्क है इश्क ... :)
......होना हो जब तो इश्क हो ही जाता है...कुछ करो या न करो...
अनु
बहुत खूब
बहुत खूब
बहुत लाजवाब
वाह!!!
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