हुंकार...

Author: दिलीप /

प्रतिकार का अधिकार ही हथियार है जन्तन्त्र का...
और मूक बधिरों को यहाँ बस शोभती परतंत्रता....
है स्फुटित होता नही हुंकार हाहाकार से...
है सीखनी अब अश्रुओं से आग जनने की कला....

है पर्वतों के सामने क्या धार सरिता का रुका...
क्या मूषकों के सामने है शीश सिंहों का झुका...
क्या भीरू वंशज हो गये हैं उस भरत सम्राट के...
था सीखता जो सिंह दाँतों से विहँस कर गिनतियाँ...

निस्तब्धता की ओट मे अब सूर्य भी छुपने लगा है...
चंद्र सब अपनी कलायें भूलकर घुटने लगा है...
रज्नियाँ देखो तिमिर की दासियाँ सी बन गयी हैं...
नील नभ लज्जा से देखो संकुचित होने लगा है...

अठखेलियों मे खो चुके यौवन ज़रा सा जाग जाओ...
हे सघन रक्तिम हृदय श्रावण ज़रा सा जाग जाओ...
कापुरुष जनने की भारत भूमि की आदत नही है...
क्रांति का विस्तार बन जीवन ज़रा सा जाग जाओ...

अब दिशाओं मे अनल से क्रांति का इक नाद भर दो...
मृत्यूशैय्या पर पड़े इस भीष्म मे नव्श्वास भर दो...
इन अभागी चीखती बलिवेदियों की माँग भर दो...
धमनियों मे राष्ट्र की नवरक्त का संचार भर दो...


अस्मिता का राष्ट्र की जो कर रहे व्यापार देखो...
धर्म भी कहता कि उनका मृत्यु ही उपहार देखो...
देशद्रोही शीश मुंडों से बने जयमाल नूतन...
भारती माँ का तभी समझो हुआ श्रृंगार देखो...

19 टिप्पणियाँ:

शिवम् मिश्रा ने कहा…

जय हो ... जय हो ... दिलीप तुम्हारी जय हो ...

आज के परिवेश में तुम जैसे कवियों की बहुत जरुरत है देश को ... ऐसे ही अपना काम करते रहो ...

जय हो मित्र सदा तुम्हारी जय हो ...

Smart Indian ने कहा…

सुन्दर और प्रेरणादायक रचना।

Apanatva ने कहा…

ojasv liye ye kavita ek naya josh detee huee prerana ka udgam hai......
behatreen abhivykti.

वाणी गीत ने कहा…

काश ऐसा ओजस्वी वीरता के भाव भर देने वाले गीत हम भी लिख पाते...
बहुत बढ़िया !

!!अक्षय-मन!! ने कहा…

बहुत ही सुन्दर भाव है बहुत अच्छे मुक्तक सभी

अक्षय-मन "!!कुछ मुक्तक कुछ क्षणिकाएं!!" से

kunwarji's ने कहा…

सूखती रक्त्नालिकाओ में फिर से रक्तसंचार हो,

मन के मेमने सिंहो से दहाड़ने को तैयार हो,

फिर भला कैसे भविष्य पर तम का अधिकार हो,

जब शंखनाद सी गूंजती ये दीलिप की हुंकार हो,



बेहतरीन और आज के लिए एक बहुत जरुरी रचना...



कुँवर जी,

vandana gupta ने कहा…

आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (28-4-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।

http://charchamanch.blogspot.com/

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

अये कवि, तुम आ गये हो फिर से सोतों को जगाने
फूल गमलों की जगह पर, ओज का पौधा लगाने.
आपका हुंकार सुनने को तरसती पेशियाँ थीं
शब्द भी तो खाद होते, 'शुष्क' लगते लहलहाने.

छंद वो ही श्रेष्ठ जिससे पाठकों का जगे तोता.
रट लगाये देश-धुन की, गोद में दादा क़ पोता.
आपका यह गीत पढ़कर जोश का संचार होता.
तट किनारे सोचते हैं 'हाथ' फिर से - मार गोता.

मनोज कुमार ने कहा…

इस ओज भरी कविता को पढ़कर दिनकर की याद आ गई।

संजय भास्‍कर ने कहा…

...प्रेरणादायक रचना।

दिलीप ने कहा…

Pratul Ji Shivam ji, Vandana ji..Sanjay ji..sabhi ka hardik abhaar...aur Pratul ji aapki panktiyon ke liye punah abhaar

दिलीप ने कहा…

Kunwar ji aapka bhi hardik abhaar...

ana ने कहा…

ati sundar post

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत ओजस्वी कविता ....

दिगम्बर नासवा ने कहा…

निस्तब्धता की ओट मे अब सूर्य भी छुपने लगा है...
चंद्र सब अपनी कलायें भूलकर घुटने लगा है...

Bahut khoob ... aapki kalam se aag nikalti hai .... ozasvi rachnaaon ki aaj samaaj ko bahut jaroorat hai ....

रजनीश तिवारी ने कहा…

देशप्रेम से ओतप्रोत सामयिक सुंदर रचना । बधाई एवं शुभकामनायें ।

Kailash Sharma ने कहा…

अस्मिता का राष्ट्र की जो कर रहे व्यापार देखो...
धर्म भी कहता कि उनका मृत्यु ही उपहार देखो...
देशद्रोही शीश मुंडों से बने जयमाल नूतन...
भारती माँ का तभी समझो हुआ श्रृंगार देखो...

बहुत ही ओजपूर्ण और प्रेरक प्रस्तुति..आज इसी हुंकार की ज़रूरत है

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बहुत सुन्दर, मस्तक माँ का सजा रहे।

चंचल पाण्डेय ने कहा…

वीर रस से परिपूर्ण आपकी ये रचना बहुत ही प्रभावी है! हार्दिक शुभकामनायें

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