आज़ादी दी थी मुझे किसी ने...
कई साल पहले...
बड़े दिन संहाले रखी...
अब मोची से उसकी चप्पल बनवा ली है...
रोज़ जाता हूँ...
उसे पहनकर...
बेबसी के गोबर में...
रगड़ता हूँ, लथेड़ता हूँ...
फिर एक खास दिन...
साफ करता हूँ, चमकाता हूँ...
घिस गयी है अब वो...
टूटने वाली है...
किसी तरह बस...
मजबूरी की गोंद लगाकर...
दोनो पट्टे जोड़ रखे हैं...
टिकाऊ नहीं थी ये वाली आज़ादी...
इस बार खास वाले दिन...
लाल किले पर जो बोलेगा...
उसके मुँह पर फेंक के मारूँगा...
उस दिन भी वो वहीं खड़ा था...
आज़ादी दी थी मुझे जिसने...
5 टिप्पणियाँ:
बहुत बेहतरीन सुंदर अभिव्यक्ति ,,,
RECENT POST: मधुशाला,
मन में क्रोध..तो कैसी आजादी..
sab aur aakrosh haen lekin sudhaar apnae andar sae aayegaa
bahut sunder bhav mere naye blog mein shamil hoiye
आखिर कब तक अपनी बेटी को निर्भया और बेटे को सरबजीत बनाना होगा ?
क्या बात दिलीप भाई, हर हिंदुस्तानी का मर्म परोस दिया अपने अपनी कविता में।
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