सुप्त चक्षु पे सज्जित हो, वह स्वप्न नहीं...
आरंभ तो हो पर अंत नहीं, वह यत्न नहीं...
क्षमा नहीं, अपमान सभी विस्मृत कर दूँ...
न क्रोध, अनर्थी ज्वालायें विकसित कर लूँ...
स्वर्ण नहीं, कि स्वयं का मैं व्यापार करूँ...
हूँ मद्य नहीं, पथभ्रष्टो का अवतार बनूँ...
वो बान नहीं, जो लक्ष्य से अपने भटक गया...
अवसाद नहीं, जो टूट हृदय से छटक गया...
मैं जलते जलते बुझ जाए, वह दीप नहीं हूँ...
मोती आँचल मे छुपा रहा, वह सीप नहीं हूँ...
भस्म बने जो क्षण भर में, अंगार नहीं मैं...
महलों मे रहने वालों का, संसार नहीं मैं...
मैं सूर्य नहीं ऐसा, कि जिसको ग्रहण लगे...
न हूँ मद मे यूँ चूर, किधर भी चरण चलें...
मैं चंद्र नहीं, शीतलता का पर्याय बनूँ...
मैं मोह नहीं, जो स्वार्थ पूर्ण निर्वाह बनूँ...
मैं शोक नहीं, जो मन मुक्तायें बरसाऊं...
हूँ आस नहीं, जो मन को बस मैं भरमाऊं....
मैं नहीं तुला, जो पाप पुण्य को तोल रही हो...
हूँ कलम नहीं, जो कायर की जय बोल रही हो...
मैं चक्रवात हूँ, मलय पवन का स्रोत नहीं हूँ...
मैं सूर्य कोटि हूँ, बुझने वाली ज्योत नहीं हूँ...
मैं वारिधि से गहरी, अंबर से उँची हूँ मैं...
बस शौर्य पराक्रम गाथाओं की सूची हूँ मैं....
कुचल रहे दुर्बल जन का आक्रोश हूँ मैं...
परिवर्तन सम अर्थी शब्दों का कोष हूँ मैं...
मैं शोषित जनता मे फूटा विश्वास नया...
मृत प्राय हुई मानवता का हूँ श्वास नया....
ब्रह्मांड हिला के रख दे जो वह तीव्र शक्ति हूँ...
मैं तो करती बस सत्य, ग्यान की भक्ति हूँ....
जो लुप्त कभी हो जाए, ऐसी भ्रांति नहीं मैं...
नव सृजन लक्ष्य संधान करूँ, वह क्रांति नयी मैं...
3 टिप्पणियाँ:
वाह बहुत तीव्र प्रवाह है
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अभिनन्दन:
आर्यभटीय और गणित (भाग-2)
Dhanyawad Vinay ji
kranti ki rah mein vicharo ka pravah bahut jaroori hai
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