ओ मस्त पवन पूरब वाली, कितनी नम होकर आई हो...
भरे खजाने वाले तुम, क्या बादल छू के आई हो...
क्या संदेसा देश का मेरे, संग संग अपने लाई हो...
लगता है खुशियों की प्यारी, गंध समेटे आई हो...
बतलाओ क्या आँगन वाले आम मे बौरें आई हैं...
सावन की मतवाली बदली घुमड घुमड क्या छाई है..
अब भी अम्मा सुबह सुबह क्या, तुलसी पूजा करती हैं...
गली किनारे गुमटी मे क्या, गर्म जलेबी छनती है...
छत पे सजे गुलबों से क्या, अब भी खुश्बू आती है...
घर से दूर की झुग्गी मे क्या, अब भी जलती बाती है..
महरी की वो प्यारी मुनिया, अब क्या पढ़ने जाती है...
अब भी क्या कोयल पेड़ों पे, छुप छुप गुन गुन गाती है...
अब भी क्या बारिश होने पे, बच्चे नाव बनाते हैं...
रेत के ऊँचे टीलों पे क्या, अब भी महल सजाते हैं...
अब भी क्या गुब्बारे वाले, हर छुट्टी पे आते हैं...
अब भी क्या बंदर भालू, आते हैं, नाच दिखाते हैं...
क्या बतलाऊं आम कट गया, सूखा सूखा मौसम है...
सूख गये तुलसी, गुलाब सब, झुग्गी मे भी मातम है...
महरी की मुनिया क्या पढ़ती, वो भी बर्तन धोती है...
कोयल भी अब दूर कहीं पे, छत पे बैठी रोती है...
बचपन नावें नहीं बनाता, गुब्बारे सब फूट गये...
कब तक खाली पेट नाचते, बंदर भालू रूठ गये...
गीली हूँ क्यूंकी ख़ालीपन, भरी निगाहें झेली हैं...
भैया जल्दी वापस जाओ, अम्मा बहुत अकेली हैं...
अम्मा बहुत अकेली हैं.....
Author: दिलीप /
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4 टिप्पणियाँ:
Dhanyawad Suman ji....
गीली हूँ क्यूंकी ख़ालीपन, भरी निगाहें झेली हैं...
भैया जल्दी वापस जाओ, अम्मा बहुत अकेली हैं..
-बहुत भावपूर्ण रचना..पसंद आई!
Dhanyawad ....
दिलीप भाई आप ने बहुत रुलाया, मेरी अम्मा मेरे साथ रहती है. एक एक रचना मैंने पढ़ी क्या कहू क्या लिखू समझ नहीं आता.
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