मैं अकेला सा पड़ा, खटिया को अपनी तोड़ता...
नभ के तारों की चमक मे, स्वप्न अपने जोड़ता...
चाँद बन रोटी का टुकड़ा, जी को था ललचा गया...
भूख के बूढ़े हुए, बच्चे को कुछ बहला गया...
जाने फिर था क्या हुआ, हड़बड़ा के मैं उठा...
दूर थोड़ी सी धुवें की चादरें उड़ती दिखी थी...
रात इक बस्ती जली थी....
दिल के टूटे साज़ से, आवाज़ कोई भी ना आई...
व्यर्थ मे ही सो चुकी, इंसानियत थी हड़बड़ाई...
हंस रहा हैवान फिर था, उस धधकते ज्वाल मे...
देख मैं फिर खो चला, निद्रा के मायाजाल मे...
फिर से बिस्तर पे गिरा,आँख मूंदी सो गया...
आत्मा की रोशनी, उस आग मे सब बुझ गयी थी...
रात इक बस्ती जली थी....
फिर सुबह की लालिमा थी, स्याह रंगो मे रंगी...
थी हवा मे राख कुछ, अरमान की बाकी अभी...
फिर सुना जब क्यूँ लगी थी आग, सब कुछ छोड़कर...
देखने अचरज से पहुँचा वो जगह, मैं दौड़कर...
न तो हिंदू ने छुआ और न ही मुस्लिम ने छुआ...
किस जलन मे जल गयी, ये बात तो बिल्कुल नयी थी...
रात इक बस्ती जली थी....
रात इक बस्ती जली थी....
Author: दिलीप /
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5 टिप्पणियाँ:
कई रंगों को समेटे एक खूबसूरत भाव दर्शाती बढ़िया कविता...बधाई
दिलीप आप का ब्लॉग http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/ देखा. बहुत ही अच्छी कवितायेँ आप लिखते हैं. क्या आप भारतीय हैं. मैं उत्तर प्रदेश का रहने वाला हूँ, यानी कि उत्तर भारतीय हूँ.
क्या आप भी भारतीय हैं ? क्या आप दक्षिण भारतीय हैं. मैं आप का पूरा नाम जानना चाहता हूँ, अरे डरिये मत. बस यूँ ही पूछ रहा हूँ. मुझे लोगों के नाम और उसका अर्थ जानना बहुत ही पसंद है.
राजीव नंदन द्विवेदी
jee haan Rajeev ji main bhartiya hun...main bhi Uttar Pradesh me lucknow ka rahne wala hun....Dileep Tiwari mera poora naam h...
Dhanyawad Sanjay ji....Apke vichar har kavita ke liye dekhkar bada harsh hota hai...
bahut badhia.
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