याद की आँच बढ़ाने की ज़रूरत क्या है...

Author: दिलीप /


याद की आँच बढ़ाने की ज़रूरत क्या है...
ये भीगा खत यूँ जलाने की ज़रूरत क्या है...

आना जाना तो बदस्तूर लगा रहता है...
फिर भला दिल को लगाने की ज़रूरत क्या है...

सामने आँख के जब ख्वाब जी रहा हो कोई....
तो मुई आँख सुलाने की ज़रूरत क्या है...

वो तो जब तक भी रहा, मेरा एक हिस्सा था...
ऐसे साथी को भुलाने की ज़रूरत क्या है...

भरी महफ़िल में जीती जागती ग़ज़ल हो कोई...
तो वहाँ नज़्म सुनाने की ज़रूरत क्या है....

जिसने इक बार कभी तेरा हुस्न चखा हो...
उसे कुछ और अब खाने की ज़रूरत क्या है...

खून की जितनी सियासत हो करो, उसमें मगर....
खुदा को बेवजह लाने की ज़रूरत क्या है..

9 टिप्पणियाँ:

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

वाह.....

लाजवाब गज़ल..

अनु

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

याद धीरे धीरे सुलगने दो..

सदा ने कहा…

वाह ... बहुत ही बढिया ।

मेरा मन पंछी सा ने कहा…

बहुत-बहुत बेहतरीन गजल...

बेनामी ने कहा…

आखिरी शेर सबसे उम्दा लगा।

ASHOK BIRLA ने कहा…

bahut hi sundar sir ji
भरी महफ़िल में जीती जागती ग़ज़ल हो कोई...
तो वहाँ नज़्म सुनाने की ज़रूरत क्या है....

Prakash Jain ने कहा…

Ek aur adbhut bhaav....benamun rachna

दिलीप ने कहा…

shukriya doston

अति Random ने कहा…

एक रिश्ते की यूँ भी कहानी रही...
वो निभा न सके, हम निभाते रहे..
हर शेर एक कहानी है
शायद तुम्हारी हो शायद मेरी है

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