बनिये को पूजते या ठाकुर को पूजते हैं...

Author: दिलीप /

 
हूँ दिल की खबर लेता, वो जात पूछते हैं...
मैं चाँद पूजता हूँ, वो रात पूजते हैं...

कुछ इस कदर है बिगड़ी आबो हवा यहाँ पर...
मेरे शहर मे अक्सर इंसान जूझते हैं...

धरती है राधिका की, मीरा की, गोपियों की...
दो प्यार करने वाले दरिया मे कूदते हैं...

उसका कुसूर ये है, वो ख्वाब देखती है...
हर रोज कलाई मे कंगन ही टूटते हैं...

कातिल है मोहब्बत का मालूम है ज़माना...
तो इश्क़ करके खुद की क़ब्रें क्यूँ खोदते हैं...

  मरते रहे दीवाने, मिटती रही मोहब्बत...
क़ानून के खुदा तो बस आँख मून्दते हैं...

औरत हुई है पैदा, ग़लती हुई खुदा से...
सबकी नज़र के घेरे इज़्ज़त ही लूटते हैं...

सोचा जहाँ की रौनक पर भी कलम चलाऊं...
न नज़्म बन रही है, न शेर सूझते हैं...

इस आग के दरिया के उस पार है ज़माना...
क्या होगा उसे पाकर, लो हम तो डूबते हैं...

उनसे जो जातियों के, ठेके चला रहे हैं...
है क्या भला खुदा की, हम जात पूछते हैं...

बनिये को पूजते या ठाकुर को पूजते हैं...
या मंदिरों मे कान्हा और राम पूजते हैं....

25 टिप्पणियाँ:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

पढ़कर संवेदित हो गया मन।

Gyan Darpan ने कहा…

बहुत शानदार रचना |

Gyan Darpan
.

आपका अख्तर खान अकेला ने कहा…

bhtrin rchnaa ke liyen bdhaai...akhtar khan akela kota rajsthan

Prakash Jain ने कहा…

Bahut hi sundar rachna....vyang benamoon hai

www.poeticprakash.com

M VERMA ने कहा…

संवेदनशील, सार्थक और सुंदर रचना

शिवम् मिश्रा ने कहा…

वाह दिलीप जी वाह ... बहुत खूब ... बहुत दिनों के बाद फिर आपको पढ़ बहुत अच्छा लगा !

शरद सिन्हा ने कहा…

बहूत ही अच्छी रचना...दिल को छू लिया अपने

kshama ने कहा…

उसका कुसूर ये है, वो ख्वाब देखती है...
हर रोज कलाई मे कंगन ही टूटते हैं...

कातिल है मोहब्बत का मालूम है ज़माना...
तो इश्क़ करके खुद की क़ब्रें क्यूँ खोदते हैं...Bahut khoob!

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना ..बहुत से मुद्दों को उठाया है ..

Pratiksha ने कहा…

Superb work yaar!!! seriously.

Anupama Tripathi ने कहा…

व्यवस्था पर .. भाव प्ताबल ..बहुत ही संवेदनशील मर्मस्पर्शी रचना ...
तारीफ के लिए शब्द ही नहीं हैं ..

bahut dino baad likhi ...

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

यह मिसरा अधिक अच्छा लगा..

मैं चाँद पूजता हूँ, वो रात पूजते हैं...

sonal ने कहा…

वापसी ज़ोरदार रही ..एक एक शेर जबरदस्त

Sunil Kumar ने कहा…

बहुत ही संवेदनशील मर्मस्पर्शी रचना .

सु-मन (Suman Kapoor) ने कहा…

वाह दिलीप ..बहुत दिनों बाद कुछ पढ़ने को मिला तुम्हारी तरफ से ....खूब लिखो .....

दिगम्बर नासवा ने कहा…

उनसे जो जातियों के, ठेके चला रहे हैं...
है क्या भला खुदा की, हम जात पूछते हैं...

बहुत खूब .. गज़ब का कलाम है दिलीप जी ... कडुवे सच को शब्द दिए हैं आपने ...

दीपक 'मशाल' ने कहा…

सोचा जहाँ की रौनक पर भी कलम चलाऊं...
न नज़्म बन रही है, न शेर सूझते हैं...

इस आग के दरिया के उस पार है ज़माना...
क्या होगा उसे पाकर, लो हम तो डूबते हैं...

yahan naye tareeke se kaha laga.. badhiya hai..

Manav Mehta 'मन' ने कहा…

बहुत बहुत सुन्दर ...

abhi ने कहा…

भाई इतने दिनों कहाँ रहे आप?
खैर, कविता बहुत ही अच्छी लगी!

संजय भास्‍कर ने कहा…

...बहुत खूब!
अच्‍छे शब्‍द संयोजन के साथ सशक्‍त अभिव्‍यक्ति।

संजय भास्कर
आदत....मुस्कुराने की
http://sanjaybhaskar.blogspot.com

बेनामी ने कहा…

Dileep ji,

bemisaal kavita. i hope you are doing good.
3 cheers for your poetry!
Regards
Nidhi (Chd DC):)

हिमानी ने कहा…

काफी दिन बाद चली है दिल की ये कलम
शायद इसी बेहतरीन रचना का इंतजार था

भावों में कसक और शब्दों में कसाव
कि पढ़कर कहें..वाह

दिलीप ने कहा…

shukriya doston

Amrita Tanmay ने कहा…

सार्थक और सुंदर ..

vidya ने कहा…

बहुत खूब............
आपके ब्लॉग में आना सार्थक हुआ.

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