खोल आँखें देख हिन्दुस्तान बेचा जा रहा है...

Author: दिलीप /


मिल रही शिक्षा उदर पोषण का बस इक माध्यम है...
कर्म से भी पूर्व फल की राह अब तकते नयन हैं...
"
स्व" का ही पर्याय बन जीवन बिताया जा रहा है...
क्या प्रयोजन मातृभूमि के सजल चाहे नयन हैं...

गर्व है किस बात का परभूमि मे सम्मान भी हो...
पूजते हैं वो तुम्हे सस्ते मे उनको मिल रहे हो...
कल बढ़ाकर मूल्य अपना सत्य को भी जान लेना...
आज जो सम्मान के आभास मे ही खिल रहे हो...

सिंह के दांतो को गिनते थे कभी अब स्वान हैं हम...
दुम हिलाते भागते हैं पश्चिमी हड्डी के पीछे...
सभ्यता, परिवार, शिक्षा सब कहीं बिखरे पड़े हैं...
हम स्वयं आदर्श की खिल्ली उड़ाते, आँख मीचे...

जो खड़े सीमा पे अपने राष्ट्र के हित मर रहे हैं...
अब ज़रा आँखों पे पट्टी बाँध दो उनकी भी बढ़ के...
दिखे उनको कहीं की सत्य का संसार क्या है...
पा रहे हैं क्या वो बंजर सी धरा हित प्राण तज के...

व्यवसाय की ही आड़ मे परतंत्रता बेची गयी थी...
आज क्यूँ हालात वो फिर से बनाए जा रहे हैं...
वीरता जनती कभी थी बांझ वो धरती हुई है...
अब नपुंसक भीरू ही बल से उगाए जा रहे हैं....

आज अपना राष्ट्र ही एक हाट बन कर रह गया है...
और हमारा ही यहाँ सम्मान बेचा जा रहा है...
मूढ़ सी कठपुतलियाँ क्यूँ बन गये हैं आज सारे...
खोल आँखें देख हिन्दुस्तान बेचा जा रहा है...

21 टिप्पणियाँ:

Majaal ने कहा…

गर्व है किस बात का परभूमि मे सम्मान भी हो...
पूजते हैं वो तुम्हे सस्ते मे उनको मिल रहे हो...
कल बढ़ाकर मूल्य अपना सत्य को भी जान लेना...
आज जो सम्मान के आभास मे ही खिल रहे हो...

कभी खुद पे, कभी हालत पे रोना आया
सुन्दर अभिव्यक्ति

ओशो रजनीश ने कहा…

व्यवसाय की ही आड़ मे परतंत्रता बेची गयी थी...
आज क्यूँ हालात वो फिर से बनाए जा रहे हैं...
वीरता जनती कभी थी बांझ वो धरती हुई है...
अब नपुंसक भीरू ही बल से उगाए जा रहे हैं...

वाह क्या बात कही है आपने इन पंक्तियों के द्वारा .... अच्छी रचना .....
कुछ लिखा है, शायद आपको पसंद आये --
(क्या आप को पता है की आपका अगला जन्म कहा होगा ?)
http://oshotheone.blogspot.com

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

चीथड़ों से पर्दा हटा दिया,
एक नंगा सत्य दिखा दिया।

राणा प्रताप सिंह (Rana Pratap Singh) ने कहा…

झरने का सा प्रवाह लिए आपकी यह कविता आसमान में उड़ते उड़ते यथार्थ के धरातल पर ला पटकती है| विचारों की इस उत्तेज़ना के लिए साधुवाद स्वीकार करें|
ब्रहमांड

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत प्रभावशाली कविता ....आज सच यही हालत है हिन्दुस्तान की

kshama ने कहा…

आज अपना राष्ट्र ही एक हाट बन कर रह गया है...
और हमारा ही यहाँ सम्मान बेचा जा रहा है...
मूढ़ सी कठपुतलियाँ क्यूँ बन गये हैं आज सारे...
खोल आँखें देख हिन्दुस्तान बेचा जा रहा है...

Sach! Jab mulk kee aankhen jo nigehbaan hoti hain,wahee moond len to aur kya hoga? Bahut sundar rachana.

"Bikhare Sitare" ke safar me aap saath rahe..."In sitaron se aage 4" pe aapkee shukrguzaree ada kee hai,zaroor gaur farmayen.

बेनामी ने कहा…

hindustaan ki ek anchahi si tasweer hai yeh....
bahut khub.....
dileep bhai humein bhoole to nahi...???

संध्या आर्य ने कहा…

shabd nahee hai mere pas ...........bahut hi badhiya

ASHOK BAJAJ ने कहा…

कर्म से भी पूर्व फल की राह अब तकते नयन हैं...

अच्छी रचना.धन्यवाद.

vandana gupta ने कहा…

सच से रु-ब-रु करवाती सामयिक रचना।

संजय भास्‍कर ने कहा…

सच यही हालत है हिन्दुस्तान की

Parul kanani ने कहा…

bahut sahi!

Anupama Tripathi ने कहा…

सिंह के दांतो को गिनते थे कभी अब स्वान हैं हम...
दुम हिलाते भागते हैं पश्चिमी हड्डी के पीछे...
सभ्यता, परिवार, शिक्षा सब कहीं बिखरे पड़े हैं...
हम स्वयं आदर्श की खिल्ली उड़ाते, आँख मीचे...

बहुत सही उदगार हैं -
मात्रभूमि की दशा देख -
बहुत कष्ट होता है -
बहुत सुंदर सोच से उपजी सुंदर कविता-
शुभकामनाएं .

honesty project democracy ने कहा…

उम्दा प्रेरक प्रस्तुती....शानदार...

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" ने कहा…

पूर्णत: नग्न सत्य!
जाने क्यों एक आह्! सी निकल गई....

mridula pradhan ने कहा…

bahut sunder.

arvind ने कहा…

आज अपना राष्ट्र ही एक हाट बन कर रह गया है...
और हमारा ही यहाँ सम्मान बेचा जा रहा है...
मूढ़ सी कठपुतलियाँ क्यूँ बन गये हैं आज सारे...
खोल आँखें देख हिन्दुस्तान बेचा जा रहा है... is kavita ki jitni bhi prasansaa ki jaaye kam hai...l

Dev K Jha ने कहा…

बहुत अच्छा.... वाकई सोचनीय प्रस्तुति...

shikha varshney ने कहा…

एक ही शब्द ....बेहतरीन ..

सु-मन (Suman Kapoor) ने कहा…

हमेशा की तरह ..Excellent

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

ek ek kadva sach hindustan ka bayan kiya hai.
prabhavi rachna....jo khoon khaula de..

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