याद का ठेला....

Author: दिलीप /

कल कई दिन बाद, मन की सीढ़ियाँ चढ़ी...
थी इक पतंग याद की, कट के वहाँ पड़ी...
वो डोर उस पतंग की, फैली थी दूर तक...
थाम डोर चल पड़ा, मैं मन की वो सड़क...
अंत मे सड़क के, इक दीवार थी मिली...
खिड़की थी एक बस वहाँ, और वो भी थी खुली...
झाँक कर देखा, तो थी आँखें चमक उठी...
बचपन की किताबों की, जब हल्की झलक मिली...

साइकिल पे हो सवार, वहाँ चल रहा था मैं...
थी मई की धूप, और जल रहा था मैं...
ज़िंदगी, पहियों मे चल रही थी घूम कर...
घर की तरफ ही जा रहा था, झूम झूम कर...
बाई ओर देख, फिर था दिल उछल गया...
इम्लियों, अमरूद से, ठेला था इक सज़ा...
फिर एक हाथ, यूँ सरक, था जेब मे गया...
उसमे था, दो रुपये का सिक्का पड़ा हुआ...

पानी वो लालसा का, मुँह से मन मे घुस गया...
साइकिल को रोक, मैं वहाँ फ़ौरन पहुँच गया...
औरत थी एक वृद्ध सी, बैठी हुई वहाँ...
साड़ी थी लाल रंग की, चेहरे पे झुर्रियाँ...
बचपन की थी मासूमियत, अब भी बची हुई...
आदत नये रिश्ते बनाने की, अभी भी थी...
मन ने मेरे उनको था, अब दादी बना लिया...
और पूछ लिया, कितने मे अमरूद है दिया...

फिर मुस्कुरा के जब उन्होने दाम बताया...
मैने भी गणित ग्यान का फिर चक्र घुमाया..
सब जोड़ जाड से था जब दिमाग़ थक गया...
सिक्का निकाल के था फिर ठेले पे रख दिया...
मैने कहा दादी ये सिक्का दो का तुम ले लो...
इतने मे जितने भी मिले उतने मुझे दे दो...
वो देख कर मुझे हँसी तो मैं भी हंस पड़ा...
क्यूंकी न उनके मुँह को कोई दाँत था बचा...

वो कहने लगी दो मे बस ये चार चढ़ेंगे...
इतने मे तुमको इतने से ज़्यादा ना मिलेंगे...
मुझको लगा की हो न हो दादी हैं ठग रही...
लगता है मुझे हैं अभी बच्चा समझ रही...
मैने तराजुओं का फिर था पड़ला हिलाया...
बेकार थी कोशिश था मैने कुछ नही पाया...
इस हार पे था मन मेरा मायूस हो गया...
लेकिन उन्होने उसमे था इक और रख दिया...

ये लाभ देखकर था मेरा मन उछल पड़ा...
फिर लेके मैं अमरूद, अपनी राह चल पड़ा...
फिर सिलसिला खरीद का, बढ़ता चला गया...
संबंध इक अबूझ था, बनता चला गया...
हम दोनो ने संवाद का इक पेड़ उगाया...
कुछ पल को वहाँ रुक, उसे फिर और बढ़ाया...
2- 3 वर्ष तक ये क्रम बस यूँही था चला...
फिर एक दिन देखा तो वो ठेला वहाँ ना था....

फिर राह वो खाली सी मुझे रोज़ ही दिखी...
दादी की वो कमी मुझे थी दिल मे तब चुभी...
बदल गया स्कूल, फिर जीवन बदल गया...
घर के लिए चुनता था अब मैं रास्ता नया...
दादी वो मेरे मन की बस इक याद हो गयी...
संबंध की वो झाड़ियाँ सारी ही खो गयी...
कुछ साल बीतते गये, साइकिल भी खो गयी...
गाड़ियाँ चलने का, अब साधन थी हो गयी...

फिर एक दिन गुजर रहा था, राह वही थी...
पर देखने की अब किसी को चाह नही थी...
पर तब ही दाई ओर जैसे इक नज़र फिरी...
इक पल को फिर बिखरी हुई तस्वीर इक जुड़ी...
यादों का था उस ओर इक मेला लगा दिखा...
बरसों के बाद फिर वहाँ ठेला लगा दिखा...
पर पास गया आँख की उम्मीद खो गयी...
इमली भी थी, अमरूद भी, दादी वहाँ ना थी...

इक आदमी वहाँ पे उस ठेले पे जमा था...
बचपन भी एक बस वहीं कोने मे पड़ा था...
मुझसे रहा नही गया और पूछ ही लिया...
दादी यहाँ पे बैठती थी वो गयी कहाँ...
उसने कहा कुछ साल पहले वो तो मर गयी...
मन पे मेरे इक ज़ोर की बिजली थी गिर गयी...
वो तस्वीर मन ही मन नज़र के सामने ही थी...
कुछ बूँद दर्द की तभी आँखों से गिर पड़ी...

फिर जेब से बटुआ निकाल ढूँढता रहा..
पर आज दो रुपये का कोई सिक्का ना मिला...
फिर दस का एक नोट मैने उसको दे दिया...
बदले मे उससे ढेर सा अमरूद ले लिया...
अमरूद आज थे बहुत नमकीन लग रहे...
भाव मन को आज थे जी भर के ठग रहे...
फिर ज़ोर से हवा चली पतंग उड़ गयी...
भावना हृदय की थी ज़मीन पे पड़ी...
बस फिर से एक बार सब था याद बन गया...
मैं ज़िंदगी की राह पे कुछ और बढ़ गया....

2 टिप्पणियाँ:

दिलीप ने कहा…

dhanyawad Sanjay ji...sabhi kritiyon ka avlokan karne ke liye shukriya...

ashu ने कहा…

ati uttam bandhu

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