अभी अभी इक गुनाह हुआ था...

Author: दिलीप /


अभी अभी इक गुनाह हुआ था...
नन्ही सी इक नज़्म का...
मन की कोख में अबौर्शन कर दिया...
सोचा कितना बोझ...
क़लम पर बढ़ जाएगा...
ग़रीब क़लम बेचारी...
पहले भूख से तो लड़ ले...
फिर ऐसी क्यूँ नज़्म...
कि जिसकी किस्मत ही हो...
मुझे छोड़ कर इक दिन...
पराए कान का होना...
और उस पर, वो नज़्म कभी जब देखूँगा...
तुम भी उसके लफ़्ज़ों में दिख जाओगी न...
इसीलिए उस एक अधूरे रिश्ते...
की उस अजन्मी निशानी को...
मार दिया था...
अभी अभी तुम याद आई थी...
अभी अभी इक गुनाह हुआ था...

पहले दुनिया कितनी दकियानूसी थी न....

Author: दिलीप /


पहले दुनिया कितनी दकियानूसी थी न...
सुबह सुबह अम्मा जब छत पे....
एक लोटे में जल और थोड़ा चावल लेकर...
सूरज को जैसे ही अर्ध्य दिया करती थी...
वैसे ही वो चिड़िया का झुंड...
चला आता था...
माँ के कंगन से जो डोर बाँध रखी थी सूरज की..
उसको थामे थामे 
गीले चावल कुटर कुटर खाने को...
मैं उन चावल के दाने और चिड़ियों को बैठा...
गिनता रहता था....
दाने कम हुए तो कोई यूँ न हो भूखा रह जाए...
रिश्ता सा था शायद कोई...
वो भी मेरी माँ के शायद बच्चे होंगे...
कैसे थे वो लोग जो बस इक पौधे को...
आँगन में सज़ा लेते थे देवी बनाके....
कितने ही पेड़ों को बस इक धागे मे
अपना लेते थे...
बड बड करके कान में कोई अपना सा हो जाता था...
घर की पहली रोटी बाहर गाय को देने जाता था...
अम्मा कहती थी दादी है तेरी...
वो गैय्या भी मुँह हिलाते जाने क्या क्या...
आशीष देती रहती....
कौव्वे की छत पे कांव कांव हो...
तो लगे कोई डाकिया हो...
किसी आने वाले की खबर दे गया...
फिर पितरों के त्योहार पे आके...
पेट भरके त्योहारी ले जाता था...
कई पुरानी हवेलियों के कंधे के सहारे...
एक बाँस की खपच्ची सिर पे सिंहासन लिए...
झूलती रहती थी...
कबूतरों के शाहेंशाह रहा करते थे....
घर के बिजली के मीटर के दाएँ कोने...
एक किरायेदार रहा करता था घर में...
छोटा सा परिवार था उसका...
इक माँ थी दो बच्चे थे....
किराया तो कभी मिला नहीं...
पर चहकते घोंसले से..
घर में कुछ रौनक सी रहती थी....
साँप बंदरों चूहों की तो तगड़ी ब्रान्डिंग थी....
सबके सिर के पीछे सूरज ही दिखता था....
पर अब न वो अम्मा के अक्षत के चावल हैं....
न मेहमानों के आने की खबर देने वाले डाकिये...
अब कितने ही बूढ़े रिश्तों की डोरी...
सड़कों के चौड़े हो जाने में कटती रहती हैं....
लेकिन हमको क्या इन सबसे...
वो एहसासों की दुनिया थी...
ये अख़बारों की दुनिया है...
अब यूँही जीवन चलता है...
आगे का किसको खलता है....
हम तो तरक्की कर चुके हैं न...
पहले दुनिया कितनी दकियानूसी थी न....




रात भर ख्वाब उसको खिलाते रहे...

Author: दिलीप /


शेर की आड़ में भेड़ आते रहे...
देश जंगल के जैसा चलाते रहे...

ली छड़ी राम की, डोर करके खुदा....
वो सियासत का लट्टू घुमाते रहे...

कोई मुफ़लिस कहीं आग में जल गया...
वो जिस्म भून कर उसका खाते रहे...

ताजे हालात हमने भी देखे मगर...
वो खबर हमको बासी दिखाते रहे....

इश्क़ उसका ज़मीं से न मंजूर था...
पेड़ पर रस्सियों से झुलाते रहे....

खून, आँसू, घुटन, आग और बेड़ियाँ... 
अपनी मर्दानगी यूँ दिखाते रहे...

अब कहीं जाके मुन्ने ने झपकी है ली...
रात भर ख्वाब उसको खिलाते रहे...