खुद को आज़माने का...

Author: दिलीप /


हमारे दामनों पर खून के छींटे बहुत से हैं...
है आया वक़्त अब अपने ज़मीरों को जगाने का...
ये माँ का दूध, राखी हर बहन की हो नहीं ज़ाया...
ये मौका है खुदी से आज खुद को आज़माने का...

नमक भरी कुछ ओस मिली...

Author: दिलीप /


आसमान की सारी रंगत, आज पड़ी बेहोश मिली...
चाँद अधूरा, टूटे तारे, रात बड़ी खामोश मिली...

भरम मुझे था ये आईना मुझको सच दिखलाएगा...
अलग अलग नकली सी सूरत, दिखती सी हर रोज़ मिली...

कैसे जी लूँ भला बताओ, इन धड़कन के टुकड़ों पर...
कुछ साँसों का क़र्ज़ मिला और एक ज़िंदगी बोझ मिली...

मुझे सहारा देने खातिर, ग़म बाहें फैलाए है...
तन्हाई की इक अनचाही रोज़ मुझे आगोश मिली...

किसी को तारा, चाँद किसी को, किसी को है सूरज की चाह...
लगा सोचने खुद की चाहें, एक अधूरी खोज मिली....

बड़े सहारे की उम्मीदें, किए हुए था रूह से मैं...
बिखर गयी सारी उम्मीदें, वो भी जिस्म फ़रोश मिली...

दीवारों को शब भर मैने, शेर ज़रा से क्या बोले...
सुबह सुबह तकिये के ऊपर, नमक भरी कुछ ओस मिली...

होगा क्या...

Author: दिलीप /


टुकड़े जो दिल के छोड़े हैं, उनको अपने पास रखो...
चीज़ मेरी ही नहीं रही तो, साथ सज़ा के होगा क्या...

क्यूँ तुम झूठी उम्मीदों को सिरहाने रख जाते हो...
नींद नहीं जब बची आँख में, ख्वाब दिखा के होगा क्या...

गम को बस आँखों तक रखो, दिल को भी न आहट हो...
दिल की खाली तस्वीरों को हार चढ़ा के होगा क्या...

अब तो उम्मीदों की बोरी, सिर पर मेरे मत रखो....
मावस के अंधे को बोलो, चाँद दिखा के होगा क्या...

माना तेरी एक छुवन पत्थर सोना कर सकती है...
राख हो चुका है दिल मेरा, हाथ लगा के होगा क्या...

जो दिन भर इक जंग पेट की, जीने खातिर लड़ता हो...
इश्क़, चाँद, सागर की उसको, नज़्म सुना के होगा क्या ...

मिला मशविरा नज़्म भेज दो, लौट के वो आ जाएँगे...
वो मुझको पढ़ न पाया, तो शेर पढ़ा के होगा क्या...

तुझसे सच्चा प्यार मिला..

Author: दिलीप /


अजब कशमकश है दिल में, है ये काँटा या फूल खिला...
टिका हुआ तारा माँगा, मुझको आवारा चाँद मिला....

जमा किया था तुझे जहाँ पर, दिल की वो गुल्लक फोड़ी...
तेरा कुछ भी हाथ न आया, बस इक टूटा काँच मिला....

ग़म ने खड़ी क़तारों में भी, एक हमें चुन रखा है...
थोड़ा तुझसे पहले आया, थोड़ा तेरे बाद मिला...

एक तुम्हारी हँसी की झालर खींच यहाँ तक ले आई...
थोसा सा जो नीचे उतरे, दिल तेरा बरबाद मिला...

प्यार के सागर के धोखे में, झाँका तेरी आँखों में...
मुझ प्यासे को इन आँखों में, सूखा इक तालाब मिला...

दिल की रेत पे कदम तुम्हारे एक निशानी छोड़ गये...
गौर से देखा निशाँ को मैंने, मरा हुआ एहसास मिला...

गले लगाया, प्यार से चूमा, मुझे छोड़ फिर नहीं गयी...
मौत गिला क्या करूँ मैं तुझसे, तुझसे सच्चा प्यार मिला...

वो इक मजदूर था...

Author: दिलीप /


वो इक मजदूर था...
रात भर उसके सिर पर...
नज़मों का बोझ रखता रहा...
चाँद, तारे, सागर, अंबर...
मय, साक़ी, पैमानों के झुंड...
कितना कुछ वो एक नट की तरह....
सिर पर संहालता रहा...
सुबह होने को थी...
कुछ झिझक कर बोला..
कोई ऐसी नज़्म भी रखो न...
जिसमें रोटी के कुछ टुकड़े हो...
या गुड की ढेली...
या कुछ भी न हो तो...
शक्कर का पानी ही सही...
उम्मीद तो होगी कि..
बोझ में कुछ खाने को भी है....
मेरी ग़लती थी, भूल गया था..
वो इक मजदूर था...

तुम्हें मुझसे मोहब्बत है....

Author: दिलीप /


मोहब्बत करते करते थक गये, कुछ यूँ भी हो जानां...
ज़रा एहसास हो हमको, तुम्हें मुझसे मोहब्बत है....

वही मुश्किल, वही मजबूरियाँ, ऐ इश्क़ ! अब बदलो...
कई सदियों से वैसे हो, मुझे इतनी शिकायत है...

उजाले बाँट डाले दिन को और बदनाम रातें हैं...
ज़रा कुछ तो उजाला हो, अंधेरों की भी चाहत है...

उन्हे लगता है, है मुझको ग़ज़ल उनसे बहुत प्यारी...
अजब है चाँद को भी आजकल तारों से दहशत है...

क़लम लेकर खड़े हैं हम, बड़ी ही कशमकश में है...
किसी के हाथ है स्याही, किसी के हाथ काग़ज़ है...

भले तुमको ये लगता हो, कि क़ाफ़िर हो चुके हैं हम...
खुदा हो तुम, ये मेरी शायरी, तेरी इबादत है....

बड़ी बदहाल है गीता, क़ुरानो के फटे पन्ने...
बड़ी बदली हुई सी आज मज़हब की इबारत है....

रहा करता था ग़ालिब नाम का शायर भी दिल्ली में....
वहीं पर इश्क़ बसता था, जहाँ टूटी इमारत है...

तो इश्क़ हो जाता....

Author: दिलीप /


उसने ता-उम्र तकल्लुफ का जो नक़ाब रखा...
वो जो उठता कभी ऊपर, तो इश्क़ हो जाता....

उसकी आदत है वो पीछे नहीं देखा करती...
ज़रा सा मुड़ के देखती, तो इश्क़ हो जाता...

उसको जलते हुए तारे, चमकता चाँद दिखा...
रात की तीरगी दिखती, तो इश्क़ हो जाता...

न उसने मेरे खतों का कभी जवाब दिया...
उसे लगता था वो लिखती, तो इश्क़ हो जाता...

समझ की करवटें ही नींद में अब शामिल हैं...
तुम्हारे ख्वाब जो आते, तो इश्क़ हो जाता...

शेर में मेरे 'चाँद' लफ्ज़ से जलती थी बहुत...
शेर जो पढ़ती वो पूरा, तो इश्क़ हो जाता...

जो लोग गीता, क़ुरानो में जंग ढूँढते हैं...
कभी ग़ालिब को भी पढ़ते, तो इश्क़ हो जाता...

कोई ऐसी रात आए...

Author: दिलीप /


मेरे ख्वाबों से भरी कोई ऐसी रात आए...
तू जब भी बात करे फिर, तो मेरी बात आए...

चलो ढूँढे कोई दुनिया, जहाँ मोहब्बत में...
न उम्र, न कोई मज़हब, न कोई जात आए....

इश्क़ करने की इस आदत से परेशान हूँ मैं...
मेरी ज़िद है मेरे हिस्से में फिर से मात आए...

उसने राखी की डोर से उसे पहचाना था...
उस धमाके के बाद भाई के बस हाथ आए...

मैं कर रहा था इंतज़ार उसी राह खड़ा...
वो आए तो मगर, वो किसी के साथ आए...

खुशी के दिन में मेरे शेर सब झुलसते हैं...
करो जतन कि एक बार फिर से रात आए...

मेरी आँखों मे रहता है...

Author: दिलीप /


मेरी आँखों मे रहता है, मगर गिरता नहीं...
अजब बादल बरसता है, मगर घिरता नहीं...

मेरे टूटे हुए घर में, बड़ी हलचल सी है...
कोई इक दौर रहता है, कभी फिरता नहीं...

बड़ी अंजान नज़रों से मुझे बस घूरता है...
मेरा ही अक्स मुझसे आजकल मिलता नहीं...

ज़ख़्म उधड़ा हुआ बतला रहा है आज ये...
जमाना नोचता है बस, कभी सिलता नहीं...

किसी को दे भी दो दिल चुभता बहुत है...
वो इक काँटा है, जो कभी खिलता नहीं....

वही सड़क, वही गलियाँ, वही मौसम मगर...
खोया सा कुछ है, जो मुझे मिलता नहीं...

सुनाऊं क्या बताओ महफ़िलों में मैं उसे...
शेर मेरा मुझे ही आजकल झिलता नहीं...

एक बेंच बूढ़ी सी...

Author: दिलीप /


एक बेंच बूढ़ी सी...
थकी हुई...
बूढ़ी हड्डियाँ उसकी....
कड़कड़ाती हैं अब...
एक हल्की सी छुवन से...
और उसके बगल में वो लैंप पोस्ट...
बूढ़ा सा...
मोतिया हो गया है उसकी आँख में....
रोशनी कम हो गयी है...
आँखों पर कई मरे पतंगों का...
चश्मा लगाता है अब....
खाँसता रहता है उसका बल्ब...
बीमार है थोड़ा...
उसके बगल में एक रिश्ता...
जो कभी उगा था उसी बेंच के सहारे....
अब सूख गया है...
मर जाएगा कुछ दिन में...
बस यादों का इक तना खड़ा रहेगा...
सुना है शहर की सफाई चल रही है...
कल बेंच नयी सी कर दी जाएगी....
लैंप पोस्ट की आँखों का भी इलाज हो जाएगा....
खाँसते बल्ब को बदल दिया जाएगा...
बस एक रिश्ता ही है...
जिसे नया नहीं कर सकते...
वो तो बस काट दिया जाएगा...

अब ये खिड़कियाँ बंद रहती हैं....

Author: दिलीप /


अब ये खिड़कियाँ बंद रहती हैं....
पहले बारिश की छीटें खटखटाती...
तो हवा खोल दिया करती थी खिड़कियाँ...
सब चाल थी तुम्हें खिड़की तक लाने की....
तुम्हारी छुवन घोल के ले जाती थी संग संग....
अब मंज़र बदल गया है....
हवा को डाँट देता हूँ...
वरना बारिश की छींटों के संग संग....
कुछ छीटें तुम्हारी भी जाती हैं....
पूरा कमरा भीग जाता है और संग संग आँखें भी....
बस इसीलिए
अब ये खिड़कियाँ बंद ही रहती हैं....

बादल बहुत बरसा उस दिन...

Author: दिलीप /


बादल बहुत बरसा उस दिन...
आम की इक डाल से अटकी चप्पल...
गुमसुम बारिश में भीगी भीगी...
तन्हा आँखों से कुछ तलाशती...
कुछ दोस्त थे इसके...
एक नन्हा पाँव था...
कुछ गुदगुदाती उंगलियाँ....
जो हमेशा इसे साथ मे लिए...
धूप से रात तक जाने वाली सड़क घुमा देते....
एक हथेली भी थी....
जो अक्सर इसे गोद में लेकर...
उम्मीद की गोद मे देकर...
आम की डाली से कैच कैच खेलती...
अब बस आम की डाली और ये चप्पल है...
वो हाथ, उंगलियाँ, पाँव सब बाढ़ में डूब गये...
उम्मीद अभी भी दूर कहीं पर डूब रही थी....
जाने फिर वो बारिश थी या बस आँसू थे...
पर बादल बहुत बरसा उस दिन...

हम मोहब्बत का छप्पर उठाते रहे...

Author: दिलीप /


वो दीवार हरदम ही ढाते रहे...
हम मोहब्बत का छप्पर उठाते रहे....

जब वो कह के गये थे, मिलेंगे नहीं...
फिर भला क्यूँ वो ख्वाबों में आते रहे...

एक रिश्ते की यूँ भी कहानी रही...
वो निभा न सके, हम निभाते रहे...

याद पी जब भी मैने तो कड़वी लगी...
थोड़ा आँखों का पानी मिलाते रहे...

अनसुनी कर गये पेड़ की सिसकियाँ...
वो दो नामों में मेरा मिटाते रहे...

है अजब मेरी नज़मों का देखो असर...
हम सिसकते रहे और वो गाते रहे...

हमको यादों मे अपनी किया दफ़्न पर...
ज़िक्र मेरा निगाहों मे लाते रहे...

चाँद होता रहा राख, जलता रहा...
बेख़बर थे वो परदा हटाते रहे...

याद की आँच बढ़ाने की ज़रूरत क्या है...

Author: दिलीप /


याद की आँच बढ़ाने की ज़रूरत क्या है...
ये भीगा खत यूँ जलाने की ज़रूरत क्या है...

आना जाना तो बदस्तूर लगा रहता है...
फिर भला दिल को लगाने की ज़रूरत क्या है...

सामने आँख के जब ख्वाब जी रहा हो कोई....
तो मुई आँख सुलाने की ज़रूरत क्या है...

वो तो जब तक भी रहा, मेरा एक हिस्सा था...
ऐसे साथी को भुलाने की ज़रूरत क्या है...

भरी महफ़िल में जीती जागती ग़ज़ल हो कोई...
तो वहाँ नज़्म सुनाने की ज़रूरत क्या है....

जिसने इक बार कभी तेरा हुस्न चखा हो...
उसे कुछ और अब खाने की ज़रूरत क्या है...

खून की जितनी सियासत हो करो, उसमें मगर....
खुदा को बेवजह लाने की ज़रूरत क्या है..

धुआँ उठता है थोड़ी दूर पर, क्या जला होगा...

Author: दिलीप /


धुआँ उठता है थोड़ी दूर पर, क्या जला होगा...
कोई इंसान, कोई घर या फिर बचपन जला होगा...

फटे आँचल को ठंडी राख का तोहफा मिला है आज...
ज़मीं को गोद में इंसान रखना अब ख़ला होगा...

अंधेरा आज फिर बुझते हुए चाँदों से रोशन है...
कहीं दिन जल गया होगा, कोई सूरज ढला होगा...

मुझे डस कर कहीं पर छिप गया है आज फिर इक दिन...
कहाँ मुझको खबर थी, आस्तीनों में पला होगा...

ये सूखा एक मौसम फिर छलेगा कुछ उमीदों को...
किसी रस्सी के फंदे में फँसा कोई गला होगा...

कहीं पर भूख ने दम तोड़ कर शायद खुशी दी है...
कहीं पर अब्र पत्थर का कोई शायद गला होगा...

कलम ने बोझ से थककर अभी इक नज़्म फेंकी है...
किसी इक शाख पर यादों की इक आँसू फला होगा...

काग़ज़ों में आज कुछ नमी सी है...

Author: दिलीप /


ज़िंदगी अब भी उस किताब में मिलती है मुझे...
थोड़ी सूखी हुई, थोड़ी सी महकती सी है...

छुओ किताब तो इक नब्ज़ का एहसास मिले...
वो कली दफ़्न सही, फिर भी धड़कती सी है...

कभी कभी जो रिवाजों की भीड़ में हांफा...
उसी को चूम कर थोड़ी सी ज़िंदगी ली है...

जब भी खोलो किताब लफ्ज़ शायरी सी कहें...
तुमने बेजान से लफ़्ज़ों को मौसिकी दी है...

हमको टूटी मिली इक पंखुड़ी, ये ज़िंदगी की...
हो न हो, तुमने मेरी याद में कमी की है...

मुझे यकीन है कल रात ज़िंदगी रोई...
तभी तो काग़ज़ों में आज कुछ नमी सी है...

मेरा कुछ दर्द, मेरे शेर सहा करते हैं...

Author: दिलीप /


आसमाँ में रोज़ जश्न हुआ करते हैं...
आँच सूरज की और चाँद पका करते हैं...

मैं तन्हा बैठ के साहिल पे समझ पाया हूँ..
के समंदर में कुछ आँसू भी बहा करते हैं...

कभी अमराइयाँ रहती थी दरख्तो पे यहाँ...
अब तो मुर्दा कई किसान रहा करते हैं...

कोई तितली, कोई कली है, कोख में मारी...
यहाँ पे ख्वाब भी नालों में बहा करते हैं...

पंख कुतरे, चोंच टूटी, है चमकती चिड़िया...
इसी को लोग क्या सोने की कहा करते हैं...

किसी चूल्‍हे में, या भट्टी में सुलगता बचपन...
घरोंदे रेत के बस्ती में ढहा करते हैं...

उस गली से गुज़रती नहीं कोई लड़की...
सुना है उस गली मे मर्द रहा करते हैं...

मेरा कुछ बोझ, मेरी नज़्म बाँट लेती है..
मेरा कुछ दर्द, मेरे शेर सहा करते हैं...

कल कुछ लोग कह रहे थे...

Author: दिलीप /


कल कुछ लोग कह रहे थे..
कि अब तुम मेरी नहीं हो...
क्यूँ..कुछ बदल गया है क्या...
ज़ुल्फो की उस छाँव के कुछ तिनके ही तो टूटे होंगे...
कुछ बारिश की बूँदों से ऊपर ऊपर गीले ही तो हुए होंगे...
वक़्त की धूप ने उन्हे कुछ कड़ा ही तो कर दिया होगा...
पर चाँद देखने को, वो बादल हथेलियों से हटाने का एहसास...
लट भूल गयी होगी क्या...
चेहरे पर कुछ झुर्रियाँ हो शायद अब...
शायद थोड़ी शिकन किसी ने खींच दी हो माथे पर...
आँखों के नीचे कुछ अंधियारा भी हो सकता है...
पर उन निगाहों के दिए मे जलता मेरा नाम...
मिटा तो नहीं होगा...
थोड़ा और भर गया हो शायद बदन तुम्हारा...
शायद अब दुपट्टे की जगह साड़ी का पल्लू होता हो...
शायद कुछ रंग बिरगी चूड़ियों ने बाँध लिया हो तुमको...
पर वो तुम्हारा काँधे का तिल, अब भी काँधे पर ही होगा न...
कुछ तो कहता ही होगा...
चादर पर सिलवट हो चाहे, रात हो ज़रा शरमाई सी...
पर तकिये पर अब भी शायद...
कभी कभी इक बूँद गिरा करती होगी...
यादें भले छिपा दी हों, पर ज़िंदा होंगी...
नहीं लकीरों मे तो क्या, किसी पुराने छल्ले में..
लटका के रखा होगा मुझको...
बड़े नादान हैं वो जो कहते हैं...
कि अब तुम मेरी नहीं हो...

कुछ रिश्ते कभी नहीं मिटते...

Author: दिलीप /


 रिश्ते इतनी आसानी से मिटते हैं क्या...
एक वक़्त था..
रिश्तें हथेली की धीमी आँच पर..
काग़ज़ रखकर पकाए जाते थे...
वक़्त लगता था पकने में..
काग़ज़ों पर दिल की बात लिखते थे...
और किताबों में धीरे से रखकर सरका देते थे...
जैसे चाँद रख दे कोई बादलों में..
और धीरे से खिसका कर सुबह को दे आए...
मुद्दतो बातें भी नहीं होती थी...
बस कुछ खुश्बुएं होती थी..
जिन्हे पिन कर लेता था इंसान कुछ ज़हेन में..
कुछ काग़ज़ पर रखे लफ़्ज़ों में...
जब वक़्त आता था रिश्तों को मिटाने का...
तो जलाना पड़ता था, दिल भी, खत भी...
जैसे सुबह के माथे पर...
सूरज रख दिया हो झुलसाने के लिए...
अब वक़्त बदल गया है...
अब वो उंगलियों की खुश्बू नहीं आती...
खत की जगह ईमेल आते हैं...
रखे रहते हैं इन्बौक्स में...
जब रिश्ते मिटाने होते हैं तो एक क्लिक होता है...
रिश्ता डिलीट...
पर कुछ रिश्ते अब भी ट्रैश और रीसाइकल बिन में...
पड़े रहते हैं बरसों तक...
कुछ रिश्ते न तब जल पाते थे...
न अब डिलीट हो पाते हैं...
जिस्म मिटते हैं रूह मिटती हैं...
पर कुछ रिश्ते कभी नहीं मिटते...

शहर के बीच में ये घोंसले नहीं होते…

Author: दिलीप /


कब्र में ज़िंदगी के हौंसले नहीं होते
सरहदों पे यहाँ, घोंसले नहीं होते

चबा रहे हैं ज़मीं, आसमाँ, फ़िज़ा सारी
यहाँ इंसान कभी पोपले नहीं होते

कहीं सूखे में, खाली आसमाँ है और यहाँ
ये अब्र बाढ़ पर भी खोखले नहीं होते

क्या चीर फाड़ के भूनोगे, खा भी जाओगे
अरे इंसान कभी ‘ढोकलेनहीं होते

 जो अपने घर का पता हमको खुदा दे देता
ये बुतो, मस्जिदों के चोंचले नहीं होते

इस बस्ती में हैं ग़रीब और पास मे ‘मिल’…
यहाँ बच्चे भी कभी तोतले नहीं होते

ये परिंदे जो समझते, इस आग के करतब
शहर के बीच में ये घोंसले नहीं होते

मजबूरी...

Author: दिलीप /


बूँद...
बड़ी उम्मीद से निकली थी घर से...
सोचा था एक दिन कोई नदी ब्याह लेगी उसे...
फिर एक सागर की हो जाएगी...
उसे मालूम न था...
शहर की सड़कों में गढ्ढे बड़े होते हैं...
फँस गयी एक गढ्ढे में...
पहिए आए बहुत से...
रौंद कर निकल गये...
सबको थाम कोशिश करती रही भागने की...
किसी ने थामा नहीं..
थामा भी, तो कुछ दूर ले जाकर पटक दिया...
आज उसी गढ्ढे मे दफ़्न हो गयी...

फ्लाइंग किस और इक ख़याल

Author: दिलीप /


याद है तुमको...
उस शाम जब तुमने लौटते हुए...
फ्लाइंग किस दी थी...
बादल शरमा के लाल हो गये थे...
बहुत याद करते हैं तुम्हें...
अब जब भी तुम्हारा खत आता है...
आ जाते हैं खिड़की से...
ले जाते हैं तुम्हारा काजल...
जो उन नम कोरे काग़ज़ो संग आ जाता है...
फिर उसे फैलाकर आसमान मे लोटते हैं...
तुम्हें याद करते हैं...
और खूब रोते हैं..

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बड़ी देर से जहेन में...
इक ख़याल भिनभिना रहा था...
बड़ा परेशान किया कम्बख़्त ने...
अंदर घूमते घूमते थककर...
पलकों के नीचे बैठ गया...
फिर धीरे से उतर आया काग़ज़ पर...
मौका देखते ही मार दिया उसको...
धब्बा पड़ गया है...
गीला हो गया है काग़ज़...

ग़ज़ल के ज़ायके में, गम का तड़का भी ज़रूरी है...

Author: दिलीप /


ज़हेन में चाहे ही, बिकने की तैय्यारी अधूरी है...
सियासत में मगर, मालूम हो कीमत, ज़रूरी है...

फटी हरियालियों ने कब भला ढँका ग़रीबी को...
कभी सरकार ने घूरी, कभी लाला ने घूरी है...

था जिसका घर, उसी को आज, इक कमरा मयस्सर है...
है घर का एक कोना थार, और बाकी मसूरी है...

वो बोले साँप, रस्सी को, कई डसवा भी आए हैं...
यहाँ पर बिक रही चमचा-गिरी और जी-हुज़ूरी है...

बनाई आग, फिर मज़हब, बनाई झोपड़ी फिर भी...
ज़मीं है सोचती, इंसान भी, कितना फितूरी है..

बड़ी उम्मीद से, खेतों को गिरवी रखके भेजा था...
है अब मुन्ने को लगता, अम्मा कहना बेसहूरी है...

वो लिखना चाहती थी हाल माँ से, पर वो क्या लिखती...
वो बेटी जल गयी, बाकी बची चिट्ठी अधूरी है...

मना करते रहे साहब, मगर वो खा गया रोटी...
सड़क पर गिर गयी तो क्या, वो दिन भर की मजूरी है....

डुबोया आँसुओं में नाम तेरा, आँच दी थोड़ी...
ग़ज़ल के ज़ायके में, गम का तड़का भी ज़रूरी है...

बस्ती में प्यासे मर रहे हैं लोग...

Author: दिलीप /


ज़रूरत है मदारी, और करतब कर रहे हैं लोग...
वहाँ घुटने ही दिखते हैं जहाँ पर सर रहे हैं लोग...

उधर भी गम यही हैं, ख्वाब भी, खुशियाँ भी ये ही हैं...
लकीरों से ज़मीं की, खामखा ही डर रहे हैं लोग...

चुनावों की अजब होली के अब आसार दिखते हैं...
वहाँ पर खून से अपने कुओं को भर रहे हैं लोग...

अजब जम्हूरियत का इक तमाशा, है हमारा मुल्क...
कहीं पर जिस्म खाली और कहीं पर चर रहे हैं लोग...

थी सपनों की दुकानें, लूट ली दंगाइयों ने कल...
ये बोनस मजहबों का है, घरों को भर रहे हैं लोग...

मकानों में नरम रिश्तों की गर्मी रह नहीं पाती...
यकीं होता नहीं इस ही शहर में, घर रहे हैं लोग....

तरक्की की परत मे दब गये, कुछ ख्वाब अधनंगे...
इसी सूखी नदी के दो मुहानों पर रहे हैं लोग...

जहां मे लोग तो उम्मीद से ज़्यादा खरे उतरे...
खुदा जो सोच न पाया, वही सब कर रहे हैं लोग...

है इतना ख़ौफ़ खाने लाश, कौवे भी नहीं आते...
यकीं होता नहीं, इस मुल्क मे मंदर रहे हैं लोग...

छीना झपटी, और घुड़की, और बंदर-बाँट...
कोई कल कह रहा था कि कभी बंदर रहे हैं लोग...

तेरी इक लट से बीते साल, बादल बाँध आया था...
गिरह वो खोल दो, बस्ती में प्यासे मर रहे हैं लोग...