तुम्हें मुझसे मोहब्बत है....

Author: दिलीप /


मोहब्बत करते करते थक गये, कुछ यूँ भी हो जानां...
ज़रा एहसास हो हमको, तुम्हें मुझसे मोहब्बत है....

वही मुश्किल, वही मजबूरियाँ, ऐ इश्क़ ! अब बदलो...
कई सदियों से वैसे हो, मुझे इतनी शिकायत है...

उजाले बाँट डाले दिन को और बदनाम रातें हैं...
ज़रा कुछ तो उजाला हो, अंधेरों की भी चाहत है...

उन्हे लगता है, है मुझको ग़ज़ल उनसे बहुत प्यारी...
अजब है चाँद को भी आजकल तारों से दहशत है...

क़लम लेकर खड़े हैं हम, बड़ी ही कशमकश में है...
किसी के हाथ है स्याही, किसी के हाथ काग़ज़ है...

भले तुमको ये लगता हो, कि क़ाफ़िर हो चुके हैं हम...
खुदा हो तुम, ये मेरी शायरी, तेरी इबादत है....

बड़ी बदहाल है गीता, क़ुरानो के फटे पन्ने...
बड़ी बदली हुई सी आज मज़हब की इबारत है....

रहा करता था ग़ालिब नाम का शायर भी दिल्ली में....
वहीं पर इश्क़ बसता था, जहाँ टूटी इमारत है...

तो इश्क़ हो जाता....

Author: दिलीप /


उसने ता-उम्र तकल्लुफ का जो नक़ाब रखा...
वो जो उठता कभी ऊपर, तो इश्क़ हो जाता....

उसकी आदत है वो पीछे नहीं देखा करती...
ज़रा सा मुड़ के देखती, तो इश्क़ हो जाता...

उसको जलते हुए तारे, चमकता चाँद दिखा...
रात की तीरगी दिखती, तो इश्क़ हो जाता...

न उसने मेरे खतों का कभी जवाब दिया...
उसे लगता था वो लिखती, तो इश्क़ हो जाता...

समझ की करवटें ही नींद में अब शामिल हैं...
तुम्हारे ख्वाब जो आते, तो इश्क़ हो जाता...

शेर में मेरे 'चाँद' लफ्ज़ से जलती थी बहुत...
शेर जो पढ़ती वो पूरा, तो इश्क़ हो जाता...

जो लोग गीता, क़ुरानो में जंग ढूँढते हैं...
कभी ग़ालिब को भी पढ़ते, तो इश्क़ हो जाता...

कोई ऐसी रात आए...

Author: दिलीप /


मेरे ख्वाबों से भरी कोई ऐसी रात आए...
तू जब भी बात करे फिर, तो मेरी बात आए...

चलो ढूँढे कोई दुनिया, जहाँ मोहब्बत में...
न उम्र, न कोई मज़हब, न कोई जात आए....

इश्क़ करने की इस आदत से परेशान हूँ मैं...
मेरी ज़िद है मेरे हिस्से में फिर से मात आए...

उसने राखी की डोर से उसे पहचाना था...
उस धमाके के बाद भाई के बस हाथ आए...

मैं कर रहा था इंतज़ार उसी राह खड़ा...
वो आए तो मगर, वो किसी के साथ आए...

खुशी के दिन में मेरे शेर सब झुलसते हैं...
करो जतन कि एक बार फिर से रात आए...

मेरी आँखों मे रहता है...

Author: दिलीप /


मेरी आँखों मे रहता है, मगर गिरता नहीं...
अजब बादल बरसता है, मगर घिरता नहीं...

मेरे टूटे हुए घर में, बड़ी हलचल सी है...
कोई इक दौर रहता है, कभी फिरता नहीं...

बड़ी अंजान नज़रों से मुझे बस घूरता है...
मेरा ही अक्स मुझसे आजकल मिलता नहीं...

ज़ख़्म उधड़ा हुआ बतला रहा है आज ये...
जमाना नोचता है बस, कभी सिलता नहीं...

किसी को दे भी दो दिल चुभता बहुत है...
वो इक काँटा है, जो कभी खिलता नहीं....

वही सड़क, वही गलियाँ, वही मौसम मगर...
खोया सा कुछ है, जो मुझे मिलता नहीं...

सुनाऊं क्या बताओ महफ़िलों में मैं उसे...
शेर मेरा मुझे ही आजकल झिलता नहीं...

एक बेंच बूढ़ी सी...

Author: दिलीप /


एक बेंच बूढ़ी सी...
थकी हुई...
बूढ़ी हड्डियाँ उसकी....
कड़कड़ाती हैं अब...
एक हल्की सी छुवन से...
और उसके बगल में वो लैंप पोस्ट...
बूढ़ा सा...
मोतिया हो गया है उसकी आँख में....
रोशनी कम हो गयी है...
आँखों पर कई मरे पतंगों का...
चश्मा लगाता है अब....
खाँसता रहता है उसका बल्ब...
बीमार है थोड़ा...
उसके बगल में एक रिश्ता...
जो कभी उगा था उसी बेंच के सहारे....
अब सूख गया है...
मर जाएगा कुछ दिन में...
बस यादों का इक तना खड़ा रहेगा...
सुना है शहर की सफाई चल रही है...
कल बेंच नयी सी कर दी जाएगी....
लैंप पोस्ट की आँखों का भी इलाज हो जाएगा....
खाँसते बल्ब को बदल दिया जाएगा...
बस एक रिश्ता ही है...
जिसे नया नहीं कर सकते...
वो तो बस काट दिया जाएगा...