घर बड़ा करने की खातिर, कद घटाना पड़ रहा है...

Author: दिलीप /




बेईमानी की सुरंग मे, झुक के जाना पड़ रहा है...
घर बड़ा करने की खातिर, कद घटाना पड़ रहा है...

हमको ये मालूम है कि एक दिन ओले पड़ेंगे...
भीड़ का हिस्सा हैं पर, तो सिर मुन्डाना पड़ रहा है...

थी अमानत और की, महफ़िल में पर दीदार तो था..
कौन जाना चाहता था, फिर भी जाना पड़ रहा है...

शाम से बस्ती की छत पर इक सितारा भी नहीं है...
उनको भट्टी मे कहीं बचपन जलाना पड़ रहा है...

ख्वाब भी उड़ने का देखे, हक कहाँ बेटी को ये है...
अपने पंखों को उसे ताला लगाना पड़ रहा है...

गाँव की मिट्टी, हवा, रिश्तों का सौंधापन कहाँ अब...
अब शहर के इस गणित मे सब घटाना पड़ रहा है...

वो पुराना खंडहर, मेहमान घर से दिख रहा था...
अब उसे बाबा को, कमरे से हटाना पड़ रहा है...

7 टिप्पणियाँ:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

कितनी मजबूरियों में घिरता आकाश..

Anupama Tripathi ने कहा…

gambheer ...
antas chhooti ...
sundar abhivyakti ...

रश्मि प्रभा... ने कहा…

गाँव की मिट्टी, हवा, रिश्तों का सौंधापन कहाँ अब...
अब शहर के इस गणित मे सब घटाना पड़ रहा है..जाने कौन सा जहाँ बनता जा रहा है

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

जाने क्या क्या करना पड़ रहा है इंसान को......मगर फिर भी हैवान बना जा रहा है....

sonal ने कहा…

hmmmmm

Rajesh Kumari ने कहा…

बहुत गहन भाव लिए हुए ,बेहतरीन रचना

बेनामी ने कहा…

सुभानाल्लाह....आजकल बड़ी कातिल ग़ज़लें ला रहें हैं आप.....बहुत ही शानदार ग़ज़ल है ये.....दाद कबूल करें।

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