जिसे हो खून कहते, हम उसे पानी बताते हैं...

Author: दिलीप /

हमें जीने मे क्यूँ होती है आसानी, बताते हैं...
हम अपने घर मे, अब कुछ और, वीरानी सजाते हैं...

खुदा, जिस दिन से तेरे नाम पर, जलते शहर देखे...
जलाते अब नही बाती, तुम्हे पानी चढ़ाते हैं...

हमें डर है की वो मिट्टी, हमें नापाक कर देगी...
तवायफ़ को तेरी बस्ती मे सब, रानी बताते हैं...

बतायें क्या, कभी उस मुल्क की बिगड़ी हुई हालत...
लुटेरे ही जहाँ पर आज, निगरानी बिठाते हैं...

लुटी थी कल कोई इज़्ज़त, तमाशे मे खड़े थे हम...
बड़े बेशर्म हैं, कि जात, मर्दानी बताते हैं...

छिपे हैं आस्तीनों मे ही कितने साँप ज़हरीले...
पकड़ पाते नही, तो पाक- इस्तानी बताते हैं....

हमारी माँ की इज़्ज़त को जो वहशी लूट जाते हैं...
उन्हे मेहमां बनाकर, उनकी नादानी बताते हैं...

जहाँ खेतों को अब पानी नही, बस खून मिलता है...
ये अफ़सर काग़ज़ों पर, खेत वो धानी दिखाते हैं...

बुरा लगता हो गर, झूठा, मुझे साबित करो यारों...
जिसे हो खून कहते, हम उसे पानी बताते हैं...

हमने उन शेरों मे, तेरा अक्स उभरते देखा है...

Author: दिलीप /

एक दिन भाई भाई को ही, दुश्मन बनते देखा है...
हमने आँगन बच्चों का भी, उस दिन बँटते देखा है...

जबसे माँ ने इस बाजू पर, बाँधी इक काली डोरी...
हमने हर तूफान को थमते, और तड़पते देखा है....

जबसे ये महंगाई बनके, मेहमां घर में आई है...
मिट्टी के ठंडे चूल्हों को, आँख से गलते देखा है...

यहाँ सियासत हमने देखा, जंगल से भी बदतर है...
यहाँ पे चूहों को अक्सर ही, साँप निगलते देखा है...

वहाँ इमारत के बाजू मे, एक झोपड़ी रहती है...
शाम से पहले उसका सूरज, हमने ढलते देखा है...

शोहरत अगर मिले तो मौला, पैर ज़मीन के अंदर हो...
ऊँचे पेड़ों को अक्सर ही हमने कटते देखा है...

कहाँ ईश है कहाँ खुदा है, बड़ी कशमकश है दिल मे...
हमने मंदिर मस्जिद खातिर, इक घर जलते देखा है...

डूब गयी जब कलम हमारी प्यार के गहरे सागर मे...
दर्द की उंगली थामे थामे, उसे उबरते देखा है...

कभी अगर लिखने बैठे और, गिरी आँख से बूँद 'करिश'...
हमने उन शेरों मे, तेरा अक्स उभरते देखा है...

और कहाँ कुछ माँगा था...

Author: दिलीप /


सभी को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं...जल्दी ही आप सभी को पढ़ भी पाऊँगा...
जीने की कुछ उम्मीदें दो, और कहाँ कुछ माँगा था...
थोड़ी सी अपनी साँसें दो, और कहाँ कुछ माँगा था...

गंगा जमुना छुपी रहें पर, लब ये चौड़े हो जाए...
संगम सी रौनक हो जाए और कहाँ कुछ माँगा था...

उधर गली मे ताज़ा ताज़ा, किसी ने इज़्ज़त नोची है...
पगली ने रोटी माँगी थी, और कहाँ कुछ माँगा था...

बूढ़ी थी वो नीम की डाली, लटका वो और टूट गयी...
बोझ ज़रा सा कम हो जाए, और कहाँ कुछ माँगा था...

मुन्ना अपना अफ़सर है अब, कहाँ गाँव मे आएगा...
बच्चा थोड़ा पढ़ लिख जाए, और कहाँ कुछ माँगा था...

डूबे घर की छत पर बैठा, हरिया है ये सोच रहा...
सावन थोड़ा जल्दी आए, और कहाँ कुछ माँगा था...

दरवाजे पर देखो कबसे, मौत हमारे खड़ी हुयी...
थोड़ी सांसें ही कम आयें और कहाँ कुछ माँगा था....
 
मैं रोऊँ तो तू हँसती है, हुई तसल्ली आज 'करिश'...
तेरी ही खुशियाँ माँगी थी, और कहाँ कुछ माँगा था...

                                                     - करिश