अभी हाल में तमिलनाडु में एक सड़क पर ये घटना हुई थी जिसने सारी मानवता को शर्मशार किया...ये कविता उसी से प्रेरित है...

Author: दिलीप /


मैं रोज़ हर किसी से कुचल दी जाने वाली सड़क हूँ,
पर उस दिन कुचली इंसानियत से हैरान अब तलक हूँ,
मेरी इसी गोद मे लेटा पड़ा था पुलिस का एक जवान,
खून से लथपथ जिस्म पर थे बस ज़ख़्म के निशान,

बस गँवा ही चुका था अपना एक पैर वो शायद,
पर मौत से था जीतने की करता रहा कवायद,
मेरी मजबूर परेशानी को तब थोड़ा चैन सा मिला,
जब बढ़ने लगा उसकी तरफ कुछ इंसानों का काफिला,

पर उनकी इंसानियत कुछ कदम चलकर ही खो गयी,
अगर उनमे अंतरात्मा थी तो वो भी कहीं सो गयी,
आँखें गड़ाई तो देखा वो आम आदमियों का रेला था,
समझ गयी उनके लिए तो ये बस तमाशा था, मेला था,

ये तो वो थे जिनके ज़िंदगी सुलग सिगरेट की तरह जाती है,
देखते ही देखते धुआँ उड़ जाता है राख रह जाती है,
इनकी नज़र कभी खुद के पेट से ही नही उठ पाती है,
ये मजबूर दुनिया को नही दुनिया इन्हे चलाती है,

पर इस बेचारे के मन मे कुछ उम्मीद जगी थी,
खून से सनी उंगलियाँ फिर मदद माँगने को उठी थी,
काश मैं उससे कह सकती ये उम्मीद बेमानी है,
उन्हे तेरी कुछ सुननी नही कुछ अपनी ही सुनानी है,

पर वो भी बहुत समझदार था जल्दी ही समझ गया,
फिर से गिरा और अपने उन्ही फटे चीथड़ो मे उलझ गया,
तभी मुझे कुछ गाड़ियों का इक काफिला आता दिखा,
उसकी भी रफ़्तार कम हुई वो भी वहाँ आकर रुका,

इस बार उम्मीद ने हम दोनो का दिल खिला दिया था,
लगा की भाग्य ने किसी देवदूत से ही मिला दिया था,
उस गाड़ी मे जनता के सेवक कोई मंत्री जी सवार थे,
उनकी झलक दिखी तो लगा वो कुछ करने को तैयार थे,

पर उनकी वो झलक भी सिर्फ़ उनकी कार की खिड़की से ही मिली,
फिर अचानक खिड़की बंद हुई और फिर दुबारा ना खुली,
वो इक बार फिर रेंगते रेंगते मदद को बिलखता रहा,
उस थोड़ी सी जुड़ी टाँग से ही धीरे धीरे घिसटता रहा,

आधे घंटे तक ये तमाशा मेरे सामने चलता रहा,
खून बहता रहा उसका पर वो मौत से जंग लड़ता रहा,
पर अचानक से उस बदली मे भी सूरज की किरण छाई,
शायद मंत्री जी को किसी ने अगले चुनाव की याद दिलाई,

उस जनता के सेवक ने आज ज़िंदगी मे पहला कमाल किया,
उसे काफिले की सबसे पिच्छली गाड़ी के पीछे डाल दिया,
किसी की हो ना हो मेरी आँखें तो खुशी से नम थी,
वो मतलबी इंसानियत भी उस ज़ख्म पे मरहम थी,

पर बाद मे पता चला कि बहुत देर हो चुकी थी,
उसके साथ उम्मीद भी दिल मे दुबक कर सो गयी थी,
इंसान ही आज इंसानियत को बेरहमी से मार गया,
वो जवान मौत से अपनी जंग राह मे ही हार गया,

काश मैं आँचल मे समेट सकती खून की वो धारा,
कह सकती समाज से उस मजबूर को तुमने है मारा,
पर क्या करूँ बस देख सकती हूँ,कुछ बोल नहीं सकती,
अपने ये दर्द से भरी दिल की पोटली कहीं खोल नही सकती,

अरे हाँ भूल गयी वहाँ किसी और की भी नज़रें थी,
शायद समाज की शतरंज की वो शातिर मोहरें थी,
वो समाज की अच्छाई का बुराई का ठेकेदार था,
वो कॅमरा लिए इक कलम पकड़े कोई पत्रकार था,

उसने भी वो सब देखा पर वो कर्म का पुजारी था,
वो तो इंसानियत का जुआ खेलने वाला बड़ा जुआरी था,
उसने बस खबर के लिए उसके मरने का इंतेज़ार किया,
बाद मे इंसान पे हैवान की जीत का समाचार दिया,

उड़ाता रहा वो खिल्ली उस समाज की जिसका वो भी हिस्सा था,
उसके लिए वो कामयाबी दिलाने वाला बस एक किस्सा था,
देखती हूँ मेरे गड्ढों से सबको होती परेशानी है,
पर ये घटना इंसानी दिल के गड्ढों की निशानी है,

मेरा क्या है मैं तो संवर जाऊंगी जब चुनाव आएगा,
पर इस बिखरते समाज की उम्र का कब वो पड़ाव आएगा,
जब कोई नफ़रत के खंजर से ज़ख़्मी यूँ नहीं पड़ा होगा,
पड़ा भी होगा तो उसके लिए सारा समाज खड़ा होगा...

मैं सत्य तुम्हे कहता हूँ माँ! तब याद तुम्हारी आती है...

Author: दिलीप /


जब भ्रमर पुष्परस पीता है. और सुमन मंद मुस्काता है,
काँटों से फट जाने पर भी जब कुसुम नही मुरझाता है,
जब तप्त धरा पर बूँद कहीं मेघों से आ गिर जाती है,
काली घनघोर घटाओं से जब सूर्य किरण तर जाती है,

जब स्वेद बिंदु को मलय पवन चुपके से छू के जाती है,
मैं सत्य तुम्हे कहता हूँ माँ! तब याद तुम्हारी आती है,

जब अश्रु नीर से सिंचे  हुए मुख पे हरियाली छा जाए,
जब अकस्मात् इस रात्रि भरे मन मे दीवाली आ जाए,
जब कष्ट भरे इस जीवन मे कुछ हर्ष कहीं से आता है,
जब स्वप्न सलोना हृदय उड़ा, बस दूर कहीं ले जाता है,

भटके से अंतर्मन को जब, इक राह नयी मिल जाती है,
मैं सत्य तुम्हे कहता हूँ माँ! तब याद तुम्हारी आती है,

जब बाल्यकाल की किलकारी स्वर्णित होती है कर्णो मे,
जब पुष्प कमल अर्पण होता है स्वतः प्रभु के चरणों मे,
जब भ्रमित युवा अंतर्मन को, इक लक्ष्य नया मिल जाता है,
जब विष से भरे हृदय मे भी, अमृत कोई घुल जाता है,

सब पाप कर्म बहते बहते, जब भगीरथी  धो जाती है,
मैं सत्य तुम्हे कहता हूँ माँ! तब याद तुम्हारी आती है,

जब शीत ल़हर  ठिठुराती हो और धूप कहीं से आ जाए,
जब स्वाती बूँद का जल आकर चातक की प्यास बुझा जाए,
जब रात्रि अमावस्या की हो, पर उज्ज्वल हो पथ तारों से,
हो मधुर स्वरों की लड़ी कोई गुंजित  सरिता के धारों से,

जब धेनु स्वयं की जिह्वा से अपनों के घाव मिटाती है,
मैं सत्य तुम्हे कहता हूँ माँ! तब याद तुम्हारी आती है,

मुझ प्यासे का तुम निर्झर हो,तुम घने नीम की छाँव हो माँ,
इस ममता से परिपूर्ण व्योम का तुम विस्तृत फैलाव हो माँ,
सब पाप हमारे धोने को धरती पे आई गंग हो तुम,
मेरे कष्टों मे घावों मे हर इक पल मेरे संग हो तुम,

जब बिना किसी भी कारण के ये अश्रु लड़ी बह जाती है,
मैं सत्य तुम्हे कहता हूँ माँ! तब याद तुम्हारी आती है,

अब वहाँ बरसूँगा जहाँ हर निगाह मेरे लिए तरसती हो...

Author: दिलीप /

एक नन्हे बालक ने उचक, खिड़की का किवाड़ खोला....
नन्हा सा बादल देखा तो छत की ओर दौड़ा...
फिर बादल से कुछ कहने लगा...
बरसने की विनती करने लगा...
बोला, रोज़ सुबह सुबह स्कूल जाता हूँ...
लौटने तक बड़ा थक जाता हूँ...
अगर तुम्हारी मुट्ठी पूरी खुल जाएगी...
शायद एक दो दिन के लिए छुट्टी मिल जाएगी...
और वैसे भी सीख लिया है, अब काग़ज़ की नाव बनाना...
चाहता हूँ उसे नालियों मे तैराना...
और फिर मम्मी भी गरमागरम समोसे बनाएँगी...
मीठी चटनी के संग प्यार से खिलाएँगी...
और वैसे भी बंटी, मोनू से कई दिन से मिला नही...
कितने दिनों से शाम को घर से हिला नही...
प्लीज़ अब मत तरसाओ...
खूब सारा पानी बरसाओ...
चाहो तो तुमको दे अपनी गेंद दूँगा...
नही तो फ्रिज पे रखी सारी चॉकलेट दूँगा...
पर याद रखना अगर तुमसे पानी नही गिरेगा...
तो फिर तुमको कुछ नही मिलेगा...
अछा मैं चलता हूँ होमवर्क करने जाना है...
फिर पापा को वीडियो गेम मे हराना है...
इतना कह वो चला गया...
बादल भी बस कुछ दूर चला...

नीचे देखा तो कोई हाथ हिला रहा था...
फटी कमीज़ पहने, ज़मीन पर कोई उसे बुला रहा था...
एक और नन्हा सा बालक नंगे पाँव खड़ा था...
बादल देख उसका मन जाने क्यूँ सड़ा था...
चेहरे पे पीलापन था...
आँखों मे फैला गीलापन था...
कहने लगा, क्या मेरी हँसी उड़ाने आए हो...
क्या इस बार फिर पानी बरसाने आए हो...
पिछली बार जब तुमसे बूंदे बरसी थी...
मेरे झोपडे की छत कितनी रातों तक टपकी थी...
हम गीले हो हो रोते थे...
पन्नी लिपटा कर सोते थे...
मगर इस बार ऐसा मत करना...
मेरे दामन को आँसुओं से मत भरना...
चूल्हा जब गीला हो जाता है...
बस धुआँ धुआँ ही फैलाता है...
सारी खुशियाँ कहीं खो जाती हैं...
माँ को खाँसी भी हो जाती है...
बाबा का भी काम ठप्प हो जाता है...
घर चलाना बड़ा मुश्किल हो जाता है...
और अभी बरसने की तुमको क्या जल्दी है...
देखते नही छोटी को कितनी सर्दी है...
तुम ही बोलो इतना सब हम कैसे सह पाएँगे...
न बाहर ही जा पाएँगे, न अंदर ही रह पाएँगे...
इन आँसुओं पे थोड़ा तरस खाओ...
इस बार बिना बरसे ही चले जाओ...
फिर उन नन्ही आँखों से पानी की कुछ बूंदे छलक पड़ी...
ये देख बादल से भी एक अश्रु बूँद टपक गयी...
पर बादल ने खुद को रोक लिया...
आँसुओं को बहने से पहले ही पोंछ लिया...
फिर बरसा नही और चुपचाप चला गया...
और मन ही मन सोचता रहा...
अब वहाँ बरसूँगा जहाँ हर निगाह मेरे लिए तरसती हो...
और जहाँ मेरी वजह से कोई आँख न बरसती हो....

हम याद करें कैसे उनको, हम अब भी भूखे सोते हैं.....

Author: दिलीप /


वो करते होंगे याद उन्हे, जो  स्वर्ण महल मे रहते हैं...
हम टूटे मिट्टी के घर में, गर्मी और पानी सहते हैं...
या वो जो अधनंगे होकर, हैं बाज़ारों मे नाच रहे...
हम टूटी खटिया पड़े हुए, दुर्भाग्य के पोथे बाँच रहे...

कुछ मिश्री मेवा फेंक रहे, हम इक रोटी को रोते हैं...
हम याद करें कैसे उनको, हम अब भी भूखे सोते हैं.....

शायद वो सच्चे देशभक्त, जो चूर नशे में उछल रहे...
हम रोज़ उन्ही की गाड़ी के, नीचे आकर हैं कुचल रहे...
या फिर वो जिनकी इज़्ज़त भी, अधखुले वस्त्र से होती है...
और एक हमारी इज़्ज़त है, घर मे भी डर कर सोती है...

वो जिन महलों मे सोते हैं, हम उनके पत्थर ढोते हैं...
हम याद करें कैसे उनको, हम अब भी भूखे सोते हैं.....

शायद वो ही भारत वासी,जो भारत को ही भूल चले...
पूरब को विधवा करके जो, पश्चिम मे लेके सूर्य चले...
अब पुरवाई  जब आती है, जोड़ों मे दर्द ही लाती है...
कंपित कर देती शीत लहर, बारिश भी छत टपकाती है....

सावन के ये खाली बादल, बस मन मे काँटे बोते हैं...
हम याद करें कैसे उनको, हम अब भी भूखे सोते हैं.....

कल फाँसी, गोली झेल गये, वो आज यहाँ गर होते भी...
देश ना रहता याद उन्हें, वो भाग्य को अपने रोते ही...
इक वो थे औरों की खातिर, हँसके फन्दो पे झूल गये...
हम लाचारी या मस्ती मे, उन बलिदानो को भूल गये...

हम बम बंदूकों से मरते, या भूख से जानें खोते हैं....
हम याद करें कैसे उनको, हम अब भी भूखे सोते हैं.....

कि दिल की आग से ये आग चूल्हे की नहीं जलती...

Author: दिलीप /


ये काँटों से फटी कलियाँ बहारें भी नही सिलती...
ये झूठों पे मढी सच्चाइयाँ, दिल को नहीं झिलती...

खुदा सूरज की थाली के निवाले दिल को भी कुछ दे...
अंधेरे मे शराफ़त दिल की अब ढूँढे नही मिलती...

बहुत दिन से बिखेरे छत पे अपने गम के सब दाने...
वो चिड़िया रोज़ आती है मगर दाने नही चुनती...

ये सब ज़ज्बात काग़ज़ पे बिखेरूं मैं मोहब्बत के...
जहाँ के देखकर पर गम, क़लम दिल की नही चलती...

मैं कर उम्मीद हर सुबह दिलों मे झाँक लेता हूँ...
मगर ये रात काली गम की इक पल भी नहीं ढलती...

सड़क पे ढूँढती कुछ कल मिली इंसानियत मुझको...
सारे बाज़ार उसकी लुट चुकी इज़्ज़त नहीं मिलती...

कहीं इस भीड़ मे लाशों के इक दिल भी पड़ा होगा...
नहीं तो छटपटाते ढूँढती यूँ माँ नही फिरती...

हैं कर ली लाख कोशिश, पर बहुत थक सो गया हूँ मैं...
कि दिल की आग से ये आग चूल्हे की नहीं जलती...

ये टपकी ओस की बूँदें, मेरी आँखों का पानी है...

Author: दिलीप /


ये टपकी ओस की बूँदें, मेरी आँखों का पानी है...
ये सीलापन हवाओं का, मेरे गम की निशानी है...
यहाँ जब पुष्प खिलते हैं, भ्रमर भी दूर रहते है...
अजब है बात पुष्पों का, बहुत नमकीन पानी है...

तेरे अधरों के मोती, मुझपे गिरते, क्या बदल जाता...
ये मेरे भाग्य का तारा, बिखरता ना, सम्हल जाता...
तू बस इक बार थामे हान्थ कहती, घुप अंधेरा है...
मैं खातिर जगमगाने राह तेरी , खुद ही जल जाता...

तेरा ही नाम अब तक, मेरे दिल की सिलवटों में है....
  तेरी ही याद के घावों की पीड़ा, करवटों में है...
मैं कैसे त्याग की भाषा, दहेकते मन को समझाऊं...
ये राधा सा खड़ा अब तक, वहीं यमुना तटों पे है...

मिटा सब ग्यान अब मेरा, मैं समझाऊं भला कैसे...
ये मन बच्चा मेरा, इसको, मैं बहलाऊं भला कैसे...
जो अब तक घूमता था बस, तेरे ही  दिल की गलियों मे...
उसे आँसू के सागर मे , मैं तैराऊ भला कैसे....

मैं इस दिल मे नही कोई नया, अब स्वप्न बुनता हूँ...
हमारे प्यार की बस, अधखिली कलियों को चुनता हूँ...
मैं बंधन तोड़ कर सारे,समाजों के, रिवाजों के....
मैं सुनता हूँ कभी अब तो, बस अपने दिल की सुनता हूँ.....

तुझे पाना नहीं, बस चाहने की चाह अब मुझको...
ये स्वप्नो मे अधूरा सा मिलन, स्वीकार अब मुझको...
चिता की मैं जलन सह लूँ, मगर ये सह ना पाऊँगा...
निशानी जग से मिट जाए, मैं आऊँ याद तब तुझको...

अरे! मैं लड़का नहीं, लड़की थी इसमे मेरा क्या दोष था...

Author: दिलीप /


फूलों के बिछौने पर नन्हे नन्हे हान्थो से मैं चढ़ी...
इत उत फिरती आसमान मे, थी मैं एक नन्ही सी परी...
जब मन करता हौले से कलियों मे जाके छिप जाती...
कभी दुबक के पत्तों के आँचल पे आराम से सो जाती...

एक दिन मैं सो रही थी, भगवान जी मेरे पास आए...
प्यार से मुझे देखा, जगाया और फिर दोनो मुस्काये...
बोले अब वक़्त आ गया है तुम्हे कहीं और जाना है...
अम्बर का दामन छोड़ किसी और का आँगन सजाना है...

मैने भी नाराज़ होके कहा मैं यहाँ से क्यूँ जाऊं...
किसी अंजान जगह के लिए अपना घर क्यूँ ठुकराऊं...
फिर उन्होने बताया, मुझे एक परिवार का अर्थ समझाया...
बोले कुछ वास्तविक प्रेम का आनंद ले छोड़ ये माया...

मैं भी सब सुन ललचा उठी, उनकी बातों मे आ गयी...
फिर नभ से उतर, मैं एक स्त्री की कोख मे समा गयी...
बहुत अंधेरा था वहाँ, बस बुरा बुरा सोच रही थी...
क्यूँ उनकी बातों मे आई, अपनी बुद्धि को कोस रही थी...

पर तभी दीवार पे कान लगाया तो मैने कुछ सुना...
सुन के लगा मेरी खातिर किसी ने है कोई सपना बुना...
कोई वो दीवार छूता, प्यारी सी छुअन का एहसास होता...
मन भी उस प्यार के साबुन से, सब पुरानी यादें धोता...

मैं सोचने लगी बाहर की दुनिया कितनी रंगीन होगी...
कुछ समय बाद वाली भावनाए कितनी नवीन होगी...
धीरे धीरे मैं भी ममता का अर्थ समझने लगी थी...
बाहर निकल माँ की गोद मे जाने को मचलने लगी थी....

सोच रही थी बाहर जाऊंगी तो माँ से लिपट जाऊंगी...
रो रो सताऊंगी, उनसे अपनी सब बातें मनावाऊंगी....
पिताजी का कंधा चढ़ संसार के सब स्वाद चखूँगी...
अब मैं भगवान जी को सदा, उन दोनों के बाद रखूँगी...

तभी अचानक एक दिन बाहर बहुत शोर सुनाई दिया...
माँ की चीखों मे जलता पिताजी का क्रोध दिखाई दिया...
बहुत प्रयास किया पर कुछ साफ नही सुन पा रही थी...
बस पिताजी के मुँह से लड़के लड़के की आवाज़ आ रही थी...

कुछ समझ पाती, कि मैं अंदर ही अंदर डोलने लगी...
जाने क्या हुआ, माँ भी बस बचाओ बचाओ बोलने लगी...
अब तक जिसने बिना देखे ही मुझे था इतना लाड़ दिया...
आज उन्ही पिताजी ने लड़के की चाह मे मुझे मार दिया....

वापस उपर गयी तो अब वो फूल मुझे नही जन्च रहे थे...
लगता था जैसे सब आज मेरे ही दुर्भाग्य पे हंस रहे थे...
भगवान जी से नाराज़ थी, मन मे पल रहा आक्रोश था...
अरे! मैं लड़का नहीं, लड़की थी इसमे मेरा क्या दोष था...

जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहाँ है.....

Author: दिलीप /


यह कविता 'प्यासा' फिल्म के गीत 'जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं ' से प्रेरित है...उम्मीद है आपको पसंद आए....

ये टुकड़ों मे घर की कहानी के किस्से...
ये बिकते दुकानों मे ईमान के हिस्से...
यूँ खूं मे बड़ा फ़र्क होता यहाँ है...
ये हिंदू यहाँ हैं तो मुस्लिम वहाँ हैं...

क्यूँ चिंगारियों मे मेरा घर जला है...
जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं....

ये काजी भी पंडित भी खंजर लिए हैं...
यूँ इन्सा की धरती को बंजर किए हैं...
मोहब्बत की हरदम सुनी जो कहानी....
वो बचपन मरा, मर चुकी है वो नानी...

ये दामन उम्मीदों का कट फट चुका है...
जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं....

ये बीमार बैलों की गाड़ी रुकी सी...
ये नभ के खजानों की थैली चुकी सी...
ये धरती के बेटों की गीली निगाहें...
उठाए ज़मीन अपनी सूखी सी बाहें...

वो मजबूर अब खो गया आसमाँ में...
जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहाँ है...

ये सड़कों पे घुट घुट गुज़रती सी रातें...
ग़रीबी के गलियों मे खुलते हैं खाते...
ये नुक्कड़ पे लुटती हुई कोई इज़्ज़त...
ये सजती हुई भूख से कोई मैय्यत...

न कंबल मिला, न कफ़न ही मिला है....
जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं...

ये नफ़रत ज़हेर को उगलती ज़बानें...
ये हिन्दी, मराठी पे कटती ज़बानें...
ये दहशत के रंगों से सड़कें सजी जो ...
वो सरहद पे कल रात गोली चली जो...

ये धरती लुटी, आसमाँ भी फटा है....
जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहाँ है...

सपोले यूँ कुर्सी से चिपके हुए हैं...
वो ठंडे मकानों मे दुबके हुए हैं...
अमीरों की गलियों मे सूरज खिला है...
ग़रीबों को बस ये अंधेरा मिला है...

सिसकती फटे हाल हो, अपनी माँ है....
जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहाँ है....

मुहाफ़िज़ बने हिंद के उनको लाओ...
ये तस्वीर जलती उन्हे भी दिखाओ...
जलाना ही है आज पूरा जलाओ...
हस्ती खुदी की खुदी अब मिटाओ...

भटकते भटकते बहुत थक चुका है...
जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहाँ है...

तेरी आँखों के कुछ मोती, और इन आँखों का पानी है... तुम्हारे प्यार की अब बस, यही बाकी निशानी है...

Author: दिलीप /


किताबों मे, तुम्हारे प्यार के कुछ रंग सूखे से...
मुझे खाने को बैठे, याद के कुछ शेर भूखे से...
हैं कुछ काग़ज़ के टुकड़ों पे, लिखावट प्यार की तेरे...
तेरे चेहरे की, भोली सी बनावट हान्थ से मेरे...

मेरे इस दिल के खिलने की जो छोटी सी कहानी है....
तुम्हारे प्यार की अब बस, यही बाकी निशानी है...

तेरी आवाज़ के सुर मे, वो अधसोई हुई रातें...
थी कुछ पूरी तो कुछ आधी, जो मिश्री सी तेरी बातें....
उनीदी आँख से देखे, सुनहरे कल के जो सपने...
तेरे वो दर्द के टुकड़े, जो लगते थे कभी अपने...

वो पल बच्चे रहे लेकिन, वो यादें तो सयानी है...
तुम्हारे प्यार की अब बस, यही बाकी निशानी है...

वक़्तों के गुना भागों से, जब ना फ़र्क पड़ता था...
वो जब बन सूर्य, दिल-नभ मे तुम्हारा अक्स चढ़ता था...
वो जब कलियों से दिल की, प्यार की जुल्फें सजाता था...
मिलन की राग मे जब, इश्क़ की बंसी बजाता था...

वो यादों की खिली कलियाँ, पुनः मन मे सजानी है...
तुम्हारे प्यार की अब बस, यही बाकी निशानी है...

उलझ कर टूटती, फँसती, पतंगी डोर इस दिल की...
मेरे सपनो के महलों की, सुनहरी बंद वो खिड़की...
वो एहसासों के आँगन मे, बिखर, टूटा पड़ा ये मन...
दहकती आग भावों की, उसी मे जल रहा ये तन....

ये हान्थो मे तेरी खुशबू, जो आँसू से मिटानी है....
तुम्हारे प्यार की अब बस, यही बाकी निशानी है...

मैं तुमपे वार पाता, गर ये मेरे प्यार के मोती...
मेरी तस्वीर, हालातों की, तब कुछ और ही होती...
मैं कायर तो नही था, खून से पर लड़ ना पाया मैं...
समाजों के रिवाजों को, तमाचा जड़ ना पाया मैं...

तेरी आँखों के कुछ मोती, और इन आँखों का पानी है...
तुम्हारे प्यार की अब बस, यही बाकी निशानी है...

प्यार अब बाज़ार मे बिकने लगा है....

Author: दिलीप /


बंद काग़ज़ मे ठिठुरते अक्षरों मे...
रुई के खामोश बैठे लश्करों मे...
थरथराती काँच वाली गाड़ियों मे...
बिन हवा के कंपकपाती झाड़ियों मे...

तोड़ अब अंगड़ाइयाँ उठने लगा है...
प्यार अब बाज़ार मे बिकने लगा है...

कुछ हवाई चुंबनो की बारिशो मे...
बाँट क्या बस लूटने की ख्वाहिशों मे...
वस्त्र अंगों की निरी लुक्का छिपी मे...
नग्न होकर घूमती परदानशीं मे...

दिल अमावस रात मे पलने लगा है...
प्यार अब बाज़ार मे बिकने लगा है...

काँच के गोले मे जलती रोशनी है...
उसकी चाहत मे पतंगो मे ठनी है...
जाने कैसी प्यार की ये बेकली है...
बाद मे उनको निगलती छिपकली है...

ख्वाब जलने का बड़ा खलने लगा है...
प्यार अब बाज़ार मे बिकने लगा है...

हो खड़ी बाज़ार लैला नाचती है...
हीर भी बस जिस्म अपना बाँटती है...
माहिया सोनी के सौदे कर रहे हैं...
बेच अपना प्यार जेबें भर रहे हैं...

जाने क्या किस्से नये गढ़ने लगा है..
प्यार अब बाज़ार मे बिकने लगा है...

बोलती तस्वीर बिकती प्यार की अब...
खोखली तकदीर मिटती प्यार की अब...
प्यार चौराहे पे औंधे मुँह पड़ा है...
जाने कबसे प्यार को तरसा बड़ा है...

ढूंढता खुद को, मगर थकने लगा है...
प्यार अब बाज़ार मे बिकने लगा है...

अब तो संयम का हार तजो, मैं बस परिवर्तन चाह रहा...

Author: दिलीप /

2/2/1
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 माता के मस्तक पे शत्रु, आतंक की आँधी चला रहा...
भाई तेरा छलनी होके, सीमा पे बेसुध पड़ा हुआ...
कब तक गाँधी आदर्शों से, यूँ झूठी आस दिखाओगे...
कब रक्त पियोगे दुश्मन का, कब अपनी प्यास बुझाओगे...

मैं कर्मों मे आज़ाद भगत, लक्ष्मी के लक्षण चाह रहा...
अब कुछ तो रक्त की बात चले, मैं बस परिवर्तन चाह रहा...

शृंगार पदों को छोड़ कवि, अब अंगारों की बात करें...
शोषित समाज के दबे हुए, कुछ अधिकारों की बात करें...
जब कलम चले तो मर्यादा, कुछ सत्य की उसमे गंध मिले...
इतिहास की काली पुस्तक मे, अब कलम की कालिख बंद मिले...

व्यापार कलम का छिन्न करे वो सत्य सुदर्शन चाह रहा...
कलम क्रांति आधार बने, मैं बस परिवर्तन चाह रहा...

इन नेताओं के डमरू पे कब तक बंदर बन उछ्लोगे...
कब तक आलस्य मे पड़े हुए दुर्भाग्य को अपने बिलखोगे..
कोई भाषा तो धर्म कोई, कोई जाति पे बाँटेगा...
कब घोर कुँहासे बुद्धि के तू ग्यान अनल से छाँटेगा...

इस राजनीति के विषधर का, मैं तुमसे मर्दन चाह रहा...
भारत से हृदय सुसज्जित हो, मैं बस परिवर्तन चाह रहा...

कुछ के तो उदर है भरे हुए, ज़्यादातर जनता भूखी है...
आँखों की नदियाँ भरी हुई, बाहर की नदियाँ सूखी है...
बचपन आँचल मे तड़प रहा, माँ की आँखें पथराई हैं...
क्या राष्ट्र सुविकसित बनने के, स्वपनों की ये परछाई है...

उनसे, जिनके घर भरे हुए, मैं थोड़ा कुंदन चाह रहा...
फिर स्वर्ण का पक्षी राष्ट्र बने, मैं बस परिवर्तन चाह रहा...

कब तक भगिनी माताओं के, अपमान सहोगे खड़े खड़े...
कब तक पुरुषार्थ यूँ रेंगेगा, औंधे मुँह भू पे पड़े पड़े...
कब तक भारत माता को यूँ निर्वस्त्र हो जलते देखोगे...
आख़िर कब तक सौभग्य सूर्य तुम अपना ढलते देखोगे...

पानी से भारी धमनियों मे कुछ रक्त के दर्शन चाह रहा...
अब तो संयम का हार तजो, मैं बस परिवर्तन चाह रहा...

फ़ितरत इंसान की- एक कड़वी कविता.....

Author: दिलीप /


खुदा से बस दुआ ये है मेरी किस्मत बदल जाए..
किसी का घर जले तो क्या, हमारा घर संवर जाए...

है ये चादर बहुत लंबी न मुझसे बाँट ले कोई...
इसी डर से, दुआ मैं माँगता हूँ पैर बढ़ जायें...

दिया कटवा वो बरगद कल ही काफ़ी सोचकर मैने..
किसी को छाँव दे दे, वो कहीं इतना ना बढ़ जाए...

लुटी बाज़ार मे कल रोटियाँ, न छीन पाया मैं...
तभी से बद्दुआ मैं दे रहा, सारी ही सड़ जायें...

जलाने जब चला बस्ती, तो पहले दिल को दफ़नाया...
कहीं हान्थो को मेरे रोकने, को दिल न अड़ जाए...

ये सारी सीढ़ियाँ चढ़ चढ़ के, अब हैं तोड़ दी मैने...
कहीं ऐसा ना हो इस छत पे कोई और चढ़ जाए....

है कल से ही बुलाया काम पर, धनिया की बेटी को...
अरे नौकर की बेटी है, भला कैसे वो पढ़ जाए...

यूँही चलते हुए कल राह मे पत्थर से टकराया...
तो चोटें देखकर बोला ये इंसान कुछ सुधर जाए...

फागुन को फिर ना जाने दें...(पिछली होली पर लिखी एक रचना)

Author: दिलीप /

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2/8/10
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अपनों मे जब मृत प्राय पड़े, और गिद्ध स्वान सब नोचेंगे...
जब अपना सब लुट जाएगा, क्या तब जाकर कुछ सोचेंगे...
जब लाल किले से गिर भू पर, ये तीन रंग बँट जाएँगे...
पापों को धोने जाएँगे, सब गंगा तल घट जाएँगे...

इस बार होलिका संग सभी, ये पाप कर्म जल जाने दें...
नव क्रांति कोई हो जाने दें, फागुन को फिर ना जाने दें...

कोई भोजन से मर जाता हैं, कोई सोने से मर जाता है....
कोई कुछ पाने से कोई, कुछ खोने से मार जाता है...
जाने कितने ही राहों पे, यूँ पड़े पड़े ही गुजर गये...
मोती स्वासों के कितनों के, महलों मे यूँही बिखर गये...

इस भेड़चाल मे जीवन के, यूँ खुद को क्यूँ बह जाने दें...
नव रंग भरे इस जीवन में, फागुन को फिर ना जाने दें...

क्या लुटा अस्मिता भारत भी, अपने घुटनों पे रेंगेगा....
क्या पूरब यूँ जल जाएगा, और पश्चिम आँखें सेंकेगा...
क्या नाम हमारे होंगे कल, अपशब्दों के पर्याय बने...
क्या फिर इतिहास के ये पन्ने, कालिख से होंगे स्याह सने....

क्या यूँही बिना अर्थ जीवन, हम स्वानों सा बन जाने दें....
इन रंगों संग कुछ रक्त बहे, फागुन को फिर ना जाने दें...

नव परिवर्तन की आग आज, कुछ रक्त हमारा चाह रही...
मस्तक पल मे कट जाता है, ये फूलों की है राह नही...
माँ के आँचल मे दुश्मन के, सिर भेंट चढ़ाने होते है...
इस रुधिर रंग मे सने हुए, कुछ पुष्प सजाने होते है...

अरि के रुधिरों की लाली में, अब पूरब को सज जाने दें...
हो जाए शत्रुमृत्युमिलन, फागुन को फिर ना जाने दें...

बन रक्तबीज का रक्त बिंदु, जब क्रांति क्रांति हम खेलेंगे...
हंसते हंसते माँ की खातिर, छाती पे हमले झेलेंगे....
जब भय देंगे अरि सेना को, जब हाहाकार मचाएँगे...
जब अपनों के अंदर बैठे, भय का विस्तार मिटाएँगे....

तब ही बरसों से झुका हुआ, भारत फिर शीश उठाएगा...
होगा फिर सुख संचार नया, फिर फागुन बीत ना पाएगा....

ये कलियुग का है कटु सत्य, अब कीमत सबकी होती है....

Author: दिलीप /


वीर अमर कुरबानी की....
मीरा जैसी दीवानी की....
मधु से मीठी हर वाणी की....
मुरलीधर जैसे ग्यानी की....
अपने आचल मे छुपा शीश, माँ सूबक सूबक जो रोती है....
ये कलियुग का है कटु सत्य, अब कीमत सबकी होती है....

प्रेम भरी बरसातों की....
सब प्यारे रिश्ते नातो की....
निर्मल गंगा सी पावन जो....
पूनम की उजली रातों की....
मन के आँधियारों को हरती,जो सत्य प्रेम की ज्योति है....
ये कलियुग का है कटु सत्य, अब कीमत सबकी होती है....

वीर प्रसूता माओं की....
काली घनघोर घटाओं की....
इन शौर्या भरी गाथाओं की....
बलिदानो की आशाओं की....
जो राष्ट्रभक्ति निज प्राण त्याग, इस मातृभूमि पर सोती है....
ये कलियुग का है कटु सत्य, अब कीमत सबकी होती है....

शिशु के अबोध शैशवपन की....
युवती के मोहक यौवन की....
हर जोगी की हर जोगन की....
जीवन के हर इक क्षण क्षण की....
परकष्टों मे बहने वाला,वो अश्रु बना जो मोती है....
ये कलियुग का है कटु सत्य, अब कीमत सबकी होती है....

माँ के हाथों के भोजन की....
भगिनी के उस अपनेपन की....
हर कीर्तन की हर पूजन की....
मनबसिया राधे मोहन की....
वो प्रेम नदी मानव तन जो, अपने अमृत से धोती है....
ये कलियुग का है कटु सत्य, अब कीमत सबकी होती है....

हे राम तेरी मर्यादा की....
हे कृष्ण तुम्हारी राधा की....
अब और लिखूं क्या मन मेरे....
कुछ थोड़े की कुछ ज़्यादा की....
ये कलम मेरी जो अपने मे, किंचित सा सार समोती है....
ये कलियुग का है कटु सत्य, अब कीमत सबकी होती है....

एक साँप, धीरे से जा बैठा दिल मे.....

Author: दिलीप /


एक साँप, धीरे से जा बैठा दिल मे...
बोला, जगह नही है आस्तीन के बिल मे....
कहने लगा, मैं अब संत हो चुका हूँ...
सारा ज़हेर अपना, कबका खो चुका हूँ....
मैने बोला, साँप हो कहाँ सुधरोगे....
जब भी उगलोगे, ज़हेर ही उगलोगे....
वो बोला, साप हूँ तभी तो जी रहा हूँ...
बड़ी देर से, तुम्हारे दिल का ज़हेर पी रहा हूँ....
देखो मेरा रंग जो हरा था, अब नीला है...
अरे आदमी...तुम्हारा ज़हेर तो मेरे ज़हेर से भी ज़हरीला है....


पागलपन बहुत ज़रूरी है......

Author: दिलीप /


इक सिख बलिदानी युवक अगर पागल ना होता...
वो भी किसान बन खेतों मे बस गन्ने बोता...
लेकिन वो पागल था उसने बंदूकें बोई...
उसने सुविधा कोयल की प्यारी कूंके खोई...
फिर देश की खातिर मृत्यु हार पे झूल गया वो...
परिवार, बाप, माता, बहनों को भूल गया वो...

उसके बलिदान की कीमत अभी अधूरी है...
हित राष्ट्र अभी पागलपन बहुत ज़रूरी है...

गर वो बंगाली युवक न होता बौराया सा...
होता अँग्रेज़ों के दफ़्तर मे गर्वाया सा..
क्या वो हिटलर से मिलता, क्या वो फौज बनाता...
वो बस घर मे सुख से रहता और मौज मनाता...
पर वो पागल था अंग्रेज़ो से जंग लड़ा वो....
बस आज़ादी की खातिर हरदम रहा खड़ा वो...

उसकी वो रक्त पुकार अभी क्या पूरी है...
हित राष्ट्र अभी पागलपन बहुत ज़रूरी है...

आज़ाद सदा रहने की कसम उठाई थी जब...
अपने सिर जिसने अपनी गोली खाई थी तब...
थे वहाँ सैकड़ों दुश्मन और वो खड़ा अकेला..
उसकी मृत्यु पर तीर्थ सज़ा वा लगा था मेला...
होता उसका मस्तिष्क यदि यूँ सधा सधा सा...
वो भी रहता परिवार संग तो बँधा बँधा सा...

आज़ादी मे भारत के अब भी दूरी है...
हित राष्ट्र अभी पागलपन बहुत ज़रूरी है...

जेल मे भूखे प्यासे हरदम पड़े रहे जो...
ले परचम आज़ादी का हरदम खड़े रहे जो...
काला पानी का ज़हेर जिन्होने हंस कर चखा...
पर सदा जलाए आज़ादी की ज्योत को रखा...
उनके उस पागलपन की कुछ चिंगारी भर लो...
वास्तव मे आज़ाद देश फिर अपना कर लो...

वो धरती तब जो लाल हुई फिर भूरी है...
हित राष्ट्र अभी पागलपन बहुत ज़रूरी है...

पर बन हिंदू मुस्लिम ना पागल तुम हो जाना...
इस क्षेत्र वाद की दौड़ में अब ना तुम बौराना...
जब पागलपन को सृजन से अपने जोड़ोगे तुम...
जब द्रव्यमोह का दृढ़ ये बंधन तोड़ोगे तुम...
जब पागलपन को लेके मन मे भ्रम ना होगा...
ये शत्रु विरोधी क्रोध कभी जब कम ना होगा...

वो कल्पमुर्ति इस राष्ट्र की तब ही पूरी है...
हित राष्ट्र अभी पागलपन बहुत ज़रूरी है...

तब एक तिरंगा बनता है....

Author: दिलीप /


छाई पूरब मे लाली हो, हो पुष्प चहक के झूम रहे...
मंदिर मे कुछ पहचाने से, हो रंग निराले घूम रहे...
कुछ शरमाई, कुछ नम आँखें, हो विदा पिया घर जब जाए...
जब बचपन के मुख की लाली, माता का आँचल भर जायें...

जब पुर्वाई का इक झोंका, मन का आँचल लहराता है...
तब खुशहाली आ जाती है, रंग केसरिया बन जाता है....

हिम की चादर मे भी तन कर, गिरिराज शौर्य दर्शाता हो...
उज्ज्वल बादल सा बन कपोत, जब शांति रंग बरसाता हो....
कोने मे बैठे दादाजी, कुछ अनुभव वाली बात कहे...
जब श्वेत चंद्र हो पूनम का, उजियारी, निर्मल रात बहे....

जब कान्हा का अबोध बचपन, माखन मे, दूध मे छनता है...
शिव जटा से निकले गंगा जल, ये श्वेत रंग तब बनता है...

यूँ सावन की हरियाली मे, जब मन मयूर हो नाच रहे...
कुछ झुंड सुरीली कोयल के, हो प्रेम कथायें बाँच रहे...
धरती की सूनी गोद कभी, अद्भुत ममता से भर जाए...
जब आसमान से कुछ बूँदें, आँखों के मोती हर जायें...

जब धरती के पीले रंग मे, नीला अंबर मिल जाता है...
आँखों मे अश्रु नही रहते, तब हरा रंग बन जाता है...

कुछ श्वेत हुई चट्टानों पे, जब शत्रु के पंजे बढ़ते हो....
जब संकट के बादल गुपचुप, यूँ आसमान मे चढ़ते हो...
तब हरे वस्त्र मे दबी भुजा, कुछ और फड़कने लगती है...
माँ की रक्षा की भाव अग्नि, तब और धधकने लगती है...

उन श्वेत हिमो पे, हरे रंग से, लाल रंग जब गिरता है....
बलिदान अमर हो जाता है, तब एक तिरंगा बनता है....

माँ! तुम्हारी कमी है...

Author: दिलीप /





मचलता था बचपन मे जिनके लिए मैं,
वो सब आज अपने लिए पा रहा हूँ,
मैं अब छोड़कर सारे वादे इरादे,
बिना शर्त कोई जिए जा रहा हूँ,
न जाने इन आँखों मे फिर क्यूँ नमी है,
माँ शायद मुझे अब तुम्हारी कमी है,
           
वो मिट्टी के बर्तन वो गुड्डे वो गुड़िया,
वो बचपन के जो खेल तुमने सिखाए,
कहीं खो गये सब वो यादों मे छिपकर,
जवानी मे जब पैर हमने बढ़ाए,
मैं बढ़ आया फिर भी वो यादें थमी है,
माँ शायद मुझे अब तुम्हारी कमी है,

वो सब जख्म मेरे, वो मरहम तुम्हारा,
वो गम मे मेरे नम थी आँखें तुम्हारी,
वो राहें थी मुश्किल, मगर बस चले हम,
वो सर को उठा थामे उंगली तुम्हारी,
उन्ही राहों पे अब भी आँखें जमी है,
माँ शायद मुझे अब तुम्हारी कमी है,

वो तस्वीर धुंधली सी अब भी बची है,
वो पल भर बिछड़ना, वो मेरा बिलखना,
वो आँचल मे छुप छुप के तुझको सताना,
वो गोदी मे सोना, वो घुटनो सरकना,
तेरी प्यारी सूरत मे नीयत रमी है,
माँ शायद मुझे अब तुम्हारी कमी है,

वो यादें सुनहरी ना मिटने दो फिर तुम,

मुझे फिर से आवाज़ देकर बुला लो,
तुम्हारे बिना लड़ सकूँगा ना जग से,
मुझे अपने आँचल मे इक पल सुला लो,
वो लोरी तुम्हारी बहुत लाज़मी है,
माँ शायद नहीं, बस तुम्हारी कमी है...